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JAGANNATH DAS RATNAKAR - जगन्नाथदास रत्नाकर

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जगन्नाथदास रत्नाकर (सं. १९२३ वि. - सं. १९८९ वि.) आधुनिक युग के श्रेष्ठ ब्रजभाषाकवि। इनका जन्म सं. 1923 (सन्‌ 1866 ई.) के भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था। भारतेंदु बावू हरिश्चंद्र की भी यही जन्मतिथि थी और वे रत्नाकर जी से 16 वर्ष बड़े थे। उनके पिता का नाम पुरुषोत्तमदास और पितामह का नाम संगमलाल अग्रवाल था जो काशी के धनीमानी व्यक्ति थे। रत्नाकर जी की प्रारंभिक शिक्षा फारसीमें हुई। उसके पश्चात्‌ इन्होंने 12 वर्ष की अवस्था में अंग्रेजीपढ़ना प्रारंभ किया और यह प्रतिभाशाली विद्यार्थी सिद्ध हुए। सन 1888 ई. में इन्होंने करना चाहा था, पर पारिवारिक परिस्थितिवश न कर पाए। ये पहले 'ज़की'उपमान से फारसी में रचना करते थे। इनके हिंदी काव्यगुरु सरदार कवि थे। ये मथुरा के प्रसिद्ध कवि 'नवनीत'चतुर्वेदी से भी बड़े प्रभावित हुए थे।

रत्नाकर जी ने अपनी आजीविका के हेतु 30-32 वर्ष की अवस्था में जरदेजी का काम आरंभ किया था। उसके उपरांत ये आवागढ़ रियासत में कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए। भारतेंदु जी के संपर्क और काशी की कविगोष्ठियों के प्रभाव से इन्होंने 1889 ई. में ्व्राजभाषा में रचना करना आरंभ किया। रत्नाकर जी की सर्वप्रथम काव्यकृति 'हिंडोला'सन्‌ 1894 ई. में प्रकाशित हुई। सन्‌ 1893 में 'साहित्य सुधा निधि'नामक मासिक पत्र का संपादन प्रारंभ किया तथा अनेक ग्रंथों का संपादन भी किया जिनमें दूलह कवि कृत कंठाभरण, कृपारामकृत 'हिततरंगिणी'चंद्रशेखरकृत 'नखशिख'हैं। नागरीप्रचारिणी सभा के कार्यों में रत्नाकर जी का पूरा सहयोग रहता था। सन्‌ 1897 में रत्नाकर जी ने घनाक्षरी नियम रत्नाकर प्रकाशित कराया और 1898 में 'समालोचनादर्श' (पोप के 'एसे ऑन क्रिटिसिज्म'का अनुवाद) प्रकाशित हुआ।

सन्‌ 1902 के उपरांत ये अयोध्यानरेश राजा प्रतापनारायण सिह के यहाँ प्राइवेट सेक्रेटरी (निजी सचिव) के रूप में काम करते रहे और अंतिम समय तक इनका संबंध अयोध्या दरबार से रहा। इस बीच इन्होंने 'बिहारी रत्नाकर'नाम से बिहारी सतसई का संपादन किया। 14 मई, सन्‌ 1921 ई. से अयोध्या की महारानी की प्रेरणा से इन्होंने 'गंगावतरण'काव्य की रचना प्रारंभ की, जो सन्‌ 1923 में समाप्त हुई। इसी समय 'उद्धवशतक'का भी रचनाकार्य चलता रहा। हरिद्वार यात्रा में एक बार इनकी पेटी खो गई जिससे 'उद्धव शतक'के सौ सवा सौ छंद चोरी चले गए। पर रत्नाकर जी ने अपनी स्मृति से उन्हें फिर लिख डाला। 'उद्धव शतक'इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। ये सन्‌ 1926 में औरियंटल कांफरेंस के हिंदी विभाग के सभापति हुए और सन्‌ 1930 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के बीसवें अधिवेशन के सभापति चुने गए। इस अधिवेशन का सभापतित्व इन्होंने राजसी ठाटबाट के साथ किया। सन्‌ 1932 ई. की 21 जून को इनका अचानक स्वर्गवास हो गया।

रत्नाकर जी केवल कवि ही नहीं थे, वरन्‌ वे अनेक भाषाओं (संस्कृत, प्राकृत, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी) के ज्ञाता तथा विद्वान्‌ भी थे। उनकी कविप्रतिभा जैसी आश्चर्यकारी थी, वैसी ही किसी छंद की व्याख्या करने की क्षमता भी विलक्षण थी। अनेक विद्वानों ने रत्नाकर जी की टीकाओं की प्रशंसा की है।

रत्नाकर जी का ब्रजभाषा पर अद्भुत अधिकार था और उनकी प्रसिद्ध ्व्राजभाषा रचनाओं में सुंदर प्रयोगों एवं ठेठ शब्दावली का व्यवहार हुआ है। रत्नाकर जी स्वच्छ कल्पना के कवि हैं। उसके द्वारा प्रस्तुत दृश्यावली सदैव अनुभूति सनी है और संवेदना को जाग्रत करनेवाली है।

रत्नाकर जी की रचनाएँ

पद्य

हरिश्चंद्र (खंडकाव्य) गंगावतरण (पुराख्यान काव्य), उद्धवशतक (प्रबंध काव्य), हिंडोला (मुक्तक), कलकाशी (मुक्तक) समालोचनादर्श (पद्यनिबंध) श्रृंगारलहरी, गंगालहरी, विष्णुलहरी (मुक्तक), रत्नाष्टक (मुक्तक), वीराष्टक (मुक्तक), प्रकीर्णक पद्यावली (मुक्तक संग्रह)। himanshu srivastava

गद्य

(क) साहित्यिक लेख - रोला छंद के लक्षण, महाकवि बिहारीलाल की जीवनी, बिहारी सतसई संबंधी साहित्य, साहित्यिक ्व्राजभाषा तथा उसके व्याकरण की सामग्री, बिहारी सतसई की टीकाएँ, बिहारी पर स्फुट लेख।

(ख) ऐतिहासिक लेख - महाराज शिवाजी का एक नया पत्र, शुगवंश का एक शिलालेख, शुंग वंश का एक नया शिलालेख, एक ऐतिहासिक पापाणाश्व की प्राप्ति, एक प्राचीन मूर्ति, समुद्रगुप्त का पाषाणाश्व, घनाक्षरी निय रत्नाकर, वर्ण, सवैया, छंद आदि।

संपादित रचनाएँ

सुधासागर (प्रथम भाग), कविकुल कंठाभरण, दीपप्रकाश, सुंदरश्रृंगार, नृपशंमुकृत नखशिख, हम्मीर हठ, रसिक विनोद, समस्यापूर्ति (भाग 1), हिततरंगिणी, केशवदासकृत नखशिख, सुजानसागर, बिहारी रत्नाकर, सूरसागर।

काव्यागत विशेषताएँ

वर्ण्य विषय- रत्नाकर जी के काव्य का वर्ण्य विषय भक्ति काल के अनुरूप भक्ति, शृंगार, भ्रमर गीत आदि से संबंधित है और उनके वर्णन करने का ढंग रीति काल के अनुसार है। अतः उनके विषय में यह सत्य ही कहा गया है कि रत्नाकर जी ने भक्तिकाल की आत्मा रीतिकाल के ढाँचे में अवतरित हुई है। रत्नाकर जी का काव्य विषय शुद्ध रूप से पौराणिक है। उन्होंने उद्धवशतक, गंगावतरण, हरिश्चंद्र आदि रचनाओं में पौराणिक कथाओं को ही अपनाया है। रत्नाकर जी के काव्य में धार्मिक भावना के साथ-साथ राष्ट्रीय भावना भी मिलती है। निम्न पंक्तियों में अंग्रेज़ी शासन की खरी-खोटी सुनाते हुए उन्होंने गांधी जी के ओजस्वी व्यक्तित्व को चित्रित किया है-

कुटिल कुचारी के निगरित मुखारी पर,
वक्र चाहि चक्र चरखे की फाल बाँधी है।
ग्रसित गुरंग ग्राह आरत अथाह परे,
भारत गयंद को गुविंद भयो गांधी है।

भाव चित्रण- रत्नाकर जी भाव-लोक के कुशल चितेरे थे। उन्होंने क्रोध प्रसन्नता, उत्साह शोक, प्रेम घृणा आदि मानवीय व्यापारों के सुंदर चित्र उपस्थित किए हैं।

गोपी-उद्धव-संवाद का एक अंश देखिए-

टूक-टूक ह्वै है मन मुकुर हमारे हाय,
चूँकि हूँ कठोर बैन-पाहन चलावौना।
एक मनमोहन तौ बसि के उजारयौ मोहिं,
हिय में अनेक मन मोहन बसावौ ना।।

बाह्य दृश्य चित्रण- रत्नाकर जी में बाह्य दृश्य चित्रण की अद्भुत क्षमता थी। सुदामा की दीनता पूर्ण चित्र में निम्न पंक्तियों में देखिए-

जै जै महाराज दुजराज दुजराज एक,
सुह्रदय सुदामा राज-द्वार आज आए हैं।
कहैं रतनाकर प्रकट ही दरिद्र रूप
फटही लंगोटी बाँधि बाँध सौं जगाए हैं।।
छीनता की छाप दीनता की छाप धारे देह,
लाठी के सहारे काठी नीठि ठहराए हैं।
संकुचित कंघ पै अघोटी-सी कछौटी लिए,
ता पर सछिद्र छोटी लोटी लटकाए हैं।।

प्रकृति चित्रण- रत्नाकर जी अपने प्रकृति चित्रण में अत्यंत सफल रहे हैं। उनके प्रकृति-चित्रण पर रीति कालीन प्रभाव स्पष्ट रूप से पड़ा है। वर्षा ऋतु का सुंदर चित्रण नीचे की पंक्तियों में देखिए-

छाई सुभ सुबना सुहाई रितु पावस की,
पूरब में पश्चिम में, उत्तर उदीची में।
कहें रत्नाकर कदंब पुल के हैं बन,
लरजै लवग लता ललित बगीची में।।

भाषा- रत्नाकर जी की भाषा शुद्ध ब्रज भाषा है। उन्होंने ब्रज भाषा में परिमार्जन भी किया। उन्होंने भूले हुए मुहावरों को अपनाया, लोकोक्तियों को स्थान दिया और बोल चाल के शब्दों को ग्रहण किया।

रत्नाकर जी की शब्द-योजना पूर्ण निर्दोष है। उन्होंने शब्दों का चयन और परिस्थितियों के अनुकूल ही किया है।

मुहावरों के प्रयोग में रत्नाकर जी अपनी समता नहीं रखते। एक उदाहरण देखिए-

अहह जाति तब मत्सरता अजहूँ न भुलाई।
हेर फेर सौ बेर जदपि मुँह की तुम खाई।

रत्नाकर जी को भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। किंतु इससे उसके सौंदर्य में कोई कमी नहीं होने पाई है। उर्दू-फ़ारसी के विद्वान होते हुए भी रत्नाकर जी ने उर्दू-फ़ारसी के शब्दों के प्रयोग में अत्यंत संयम से काम लिया है। उन्होंने उर्दू-फ़ारसी के केवल उन्हीं शब्दों को अपनाया है जिनसे भाषा की स्वाभाविकता नष्ट नहीं हुई।

संक्षेप में रत्नाकर जी की भाषा संयत, प्रौढ़ और प्रवाह पूर्ण है।

शैली- रत्नाकर जी की शैली रीतिकाल की अलंकृत शैली है। उनकी इस शैली में सूरदास और मीरा की भावुकता, देव की प्रेममयता, बिहारी की कलात्मकता, पद्माकर की प्रभावोत्पादकता, और भूषण की ओजस्विता का सुंदर समन्वय है। रत्नाकर जी की शैली में भाव और भाषा का पूर्ण संयोग हैं।

रस- यों रत्नाकर जी के काव्य में सभी रस मिलते हैं, पर शृंगार, करुण वीर और वीभत्स रस के चित्रण में उन्हें विशेष सफलता मिली है।

छंद- रत्नाकर जी ने विविध प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है, किंतु रोला, कवित्त और सवैया छंद उनके विशेष प्रिय छंदों में से हैं।

अलंकार- रत्नाकर जी अपने युग में सर्वाधिक अलंकार प्रिय कवि हैं! उनकी रचना का प्रत्येक छंद अलंकारों की सुषमा से परिपूर्ण है। रत्नाकर जी का सबसे अधिक प्रिय अलंकार साँग रूपक है। इसके अतिरिक्त यमक, श्लेष, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप स्मरण, आदि अलंकार का सौंदर्य भी रत्नाकर जी के काव्य में देखा जा सकता है।

समालोचना

रत्नाकर जी ब्रजभाषा काव्य के अंतिम ऐतिहासिक कवि थे। ब्रजभाषा के आधुनिक काल के कवियों में उनका स्थान अद्वितीय है। उनकी कविता भक्ति काल और रीति काल दोनों का एक-एक साथ प्रतिनिधित्व करती है। उन्होंने प्राचीन काव्य परंपराओं का नवीन दृष्टिकोण से अनुशीलन किया और ब्रजभाषा का संस्कार कर उसे इस योग्य बना दिया कि वह खड़ी बोली के समक्ष अपना माधुर्य व्यक्त करने में समर्थ हो सके। भ्रमर गीत की परंपरा में रत्नाकर जी के 'उद्धव शतक'का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपने काव्य गुणों के कारण रत्नाकर जी हिंदी साहित्य में चिर स्मरणीय रहेंगे।

संदर्भ

रत्नाकर जी की ग्रंथावली नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित;

कृष्णशंकर शुक्ल : कविवर रत्नाकर;

श्री बनारसीदास: रेखाचित्र;

रामचंद्र शुक्ल: हिंदी साहित्य का इतिहास।

साभार : मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया 

BABU GULAB RAI M.A. - बाबू गुलाबराय

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बाबू गुलाबराय (अंग्रेज़ी: Babu Gulabrai, जन्म- 17 जनवरी, 1888 - मृत्यु- 13 अप्रैल, 1963)भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार, निबंधकार और व्यंग्यकार थे। वे हमेशा सरल साहित्य को प्रमुखता देते थे, जिससे हिन्दी भाषा जन-जन तक पहुँच सके। गुलाबराय जी ने दो प्रकार की रचनाएँ की हैं- दार्शनिक और साहित्यिक। उनकी दार्शनिक रचनाएँ उनके गंभीर अध्ययन और चिंतन का परिणाम हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में शुद्ध भाषा तथा परिष्कृत खड़ी बोली का प्रयोग अधिकता से किया है। आधुनिक काल के निबंध लेखकों और आलोचकों में बाबू गुलाबराय का स्थान बहुत ऊँचा है। उन्होंने आलोचना और निबंध दोनों ही क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा और मौलिकता का परिचय दिया है।

बाबू गुलाबराय का जन्म 17 जनवरी, 1888 को इटावा (उत्तर प्रदेश) में एक वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता भवानी प्रसाद धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उनकी माता भी भगवान श्रीकृष्ण की उपासिका थीं। वे सूरदास औरकबीर के पदों को तल्लीन होकर गाया करती थीं। माता-पिता की इस धार्मिक प्रवृत्ति का प्रभाव बाबू गुलाबराय पर भी पड़ा। गुलाबराय की प्रारंभिक शिक्षा मैनपुरी में हुई थी। अपनी स्कूली शिक्षा के बाद उन्हें अंग्रेज़ी शिक्षा के लिए ज़िले के विद्यालय में भेजा गया। गुलाबराय ने 'आगरा कॉलेज'से बी. ए. की परीक्षा पास की। इसके पश्चात 'दर्शनशास्त्र'में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करके गुलाबराय जी छतरपुरचले गए।

छतरपुर में गुलाबराय की प्रथम नियुक्ति महाराजा विश्वनाथ सिंह जूदेव के दार्शनिक सलाहकार के रूप में हुई। कुछ समय बाद उन्हें महाराज का निजी सहायक बना दिया गया। बाबू गुलाबराय अपने राजकीय कर्तव्य के पालन में सदैव सचेत रहते थे। वह राज्य के धन को ऐसी सावधानी से व्यय करते थे, जैसे वह उनका निजी धन हो। इस संबंध में अनेक प्रसंग भरे पड़े हैं। राज्य में जितना सामान ख़रीदा जाता था, वह महाराज के सहायक द्वारा ही क्रय किया जाता था। एक बार एक बड़े सौदागर से गुलाबराय ने कई हज़ार रुपये का सामान ख़रीदा। सौदागर ने उनको कमीशन ले लेने का संकेत किया। गुलाबराय ने पूछा- 'कितना बनता है'। फिर उस सौदागर से कहा कि बिल में लिख दीजिए। उनकी इस मितव्ययिता तथा राजनिष्ठा से महाराज बड़े प्रभावित हुए। बाबू गुलाबराय ने छतरपुर दरबार में 18 वर्ष व्यतीत किए और राज दरबार के न्यायाधीश की भी भूमिका निभाई।

बाबू गुलाबराय को पशु-पक्षियों से भी बहुत प्रेम था। जब महाराज का निधन हुआ, तब वे छतरपुर राज्य की सेवा छोड़कर आगरा वापस आ गये और अपने पालित पशु-पक्षियों को भी साथ लेकर आए। जो भी उनके संपर्क में आया, वही उनके परिवार का सदस्य और उनकी लेखनी का विषय बन गया।

बाबू गुलाबराय की दार्शनिक रचनाएँ उनके गंभीर अध्ययन और चिंतन का परिणाम हैं। उन्होंने सर्व प्रथम हिन्दीको अपने दार्शनिक विचारों का दान दिया। उनसे पूर्व हिन्दी में इस विषय का सर्वथा अभाव था। गुलाबराय की साहित्यिक रचनाओं के अंतर्गत उनके आलोचनात्मक निबंध आते हैं। ये आलोचनात्मक निबंध सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों ही प्रकार के हैं। उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि विविध विषयों पर भी अपनी लेखनी चलाकर हिन्दी साहित्यकी अभिवृद्धि की है।

बाबू गुलाबराय की भाषा शुद्ध तथा परिष्कृत खड़ी बोली है। उसके मुख्यतः दो रूप देखने को मिलते हैं - क्लिष्ट तथा सरल। विचारात्मक निबंधों की भाषा क्लिष्ट और परिष्कृत हैं। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है, भावात्मक निबंधों की भाषा सरल है। उसमें हिंदी के प्रचलित शब्दों की प्रधानता है साथ उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। कहावतों और मुहावरों को भी अपनाया है। गुलाबराय जी की भाषा आडंबर शून्य है। संस्कृत के प्रकांड पंडित होते हुए भी गुलाबराय जी ने अपनी भाषा में कहीं भी पांडित्य-प्रदर्शन का प्रयत्न नहीं किया। संक्षेप में गुलाब राय जी का भाषा संयत, गंभीर और प्रवाहपूर्ण है।

गुलाब राय जी की रचनाओं में हमें निम्नलिखित शैलियों के दर्शन होते हैं-विवेचनात्मक शैली-

यह शैली बाबू गुलाबराय के आलोचनात्मक तथा विचारात्मक निबंधों में मिलती है। इस शैली में साहित्यिक तथा दार्शनिक विषयों पर गंभीरता से विचार करते समय वाक्य अपेक्षाकृत लंबे और दुरुह हो जाते हैं, किंतु जहाँ वर्तमान समस्याएँ, प्राचीन सिद्धांतों की व्याख्याएँ अथवा कवियों की व्याख्यात्मक आलोचनाएँ प्रस्तुत की गई हैं, वहाँ वाक्य सरल और भावपूर्ण हैं। इस शैली का एक उदाहरण- 'राष्ट्रीय पर्व'का मनाना कोरी भावुकता नहीं है। इस भावुकता का मूल्य है। भावुकता में संक्रामकता होती है और फिर शक्ति का संचार करती है। विचार हमारी दशा का निदर्शन कर सकते हैं किंतु कार्य संपादन की प्रबल प्रेरणा और शक्ति भावों में ही निहित रहती है।

बाबू गुलाबराय की इस शैली में विचारों और भावों का सुंदर समन्वय है। यह शैली प्रभावशालीन है और इसमें गद्य काव्य का सा आनंद आता है। इसकी भाषा अत्यंत सरल है। वाक्य छोटे-छोटे हैं और कहीं-कहीं उर्दू के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। 'नर से नारायण'नामक निबंध से इस शैली का एक उदाहरण- 'सितंबर के महीने में आगरे में पानी की त्राहि-त्राहि मची थी। मैंने भी वैश्य धर्म के पालने के लिए पास के एक खेत में चरी 'बो'रखी थी। ज्वार की पत्तियाँ ऐंठ-ऐंठ कर बत्तियाँ बन गई थीं।

बाबू गुलाबराय ने अपने निबंधों की नीरसता को दूर करने के लिए गंभीर विषयों के वर्णन में हास्य और व्यंग्य का पुट भी दिया है। इस विषय में उन्होंने लिखा है- 'अब मैं प्रायः गंभीर विषयों में भी हास्य का समावेश करने लगा हूँ। जहाँ हास्य के कारण अर्थ का अनर्थ होने की संभावना हो अथवा अत्यंत करुण प्रसंग हो तो हास्य से बचूँगा अन्यथा मैं प्रसंग गत हास्य का उतना ही स्वागत करता हूँ जितना कि कृपण या कोई भी अनायास आए हुए धन का।'इस शैली में हास्य का समावेश करने के लिए गुबाब राय जी या तो मुहावरों का सहारा लेते हैं या श्लेष का। इस शैली के वाक्य कुछ बड़े हैं। इसमें उर्दू,फ़ारसी के शब्दों और मुहावरों का भी प्रयोग हुआ है।


डाक टिकट पर बाबू गुलाबराय और उनकी रचनाएँ

'ठलुआ क्लब', 'कुछ उथले-कुछ गहरे', 'फिर निराश क्यों'उनकी चर्चित रचनाएँ हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा 'मेरी असफलताएँ'नाम से लिखी। आनंदप्रियता बाबू गुलाबराय के परिवार की एक ख़ास विशेषता रही थी। वह सभी त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाते थे। उम्र के साठ वर्ष बीतने पर उन्होंने इन उत्सवों में अपना जन्मदिन मनाने का एक उत्सव और जोड़ लिया था। इस दिन आगरा में उनके घर 'गोमती निवास'पर एक साहित्यिक गोष्ठी होती थी। इसमें अनेक साहित्यकार आते थे। बाबू गुलाबराय ने मौलिक ग्रंथों की रचना के साथ-साथ अनेक ग्रंथों का संपादन भी किया है। इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं-

बाबू गुलाबराय को साहित्यिक सेवाओं के फलस्वरूप 'आगरा विश्वविद्यालय'ने उन्हें 'डी. लिट.'की उपाधि से सम्मानित किया था। उनके सम्मान में भारतीय डाकतार विभाग ने 22 जून 2022 को एक टिकट जारी किया जिसका मूल्य 5 रुपये था और जिस पर बाबू गुलाबराय के चित्र के साथ उनकी तीन प्रमुख पुस्तकों को भी प्रदर्शित किया गया था।

बाबू गुलाबराय ने अपने जीवन के अंतिम काल तक साहित्य की सेवा की। सन 1963 में आगरा में उनका स्वर्गवास हुआ।

JAINENDRA KUMAR - जैनेन्द्र कुमार

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जैनेन्द्र कुमार (अंग्रेज़ी: Jainendra Kumar जन्म: 2 जनवरी, 1905 - मृत्यु: 24 दिसम्बर, 1988)हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कथाकार, उपन्यासकार तथा निबंधकार थे। ये हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक के रूप में मान्य हैं। जैनेन्द्र अपने पात्रों की सामान्यगति में सूक्ष्म संकेतों की निहिति की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं। उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ इसी कारण से संयुक्त होकर उभरती हैं।

अलीगढ़में 2 जनवरी, 1905को एक वैश्य परिवार में जन्मे जैनेन्द्र ने बाल्यावस्था से ही अलग तरह का जीवन जिया। इनके मामा ने हस्तिनापुरमें गुरुकुल स्थापित किया था, वहीं इनकी पढ़ाई भी हुई। दो वर्ष की आयु में ही पिताको खो चुके थे। जैनेन्द्र तो बाद में बने, आपका मूलनाम 'आनंदी लाल'था। उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें हुई। 1921में पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलनमें कूद पड़े। 1923में राजनैतिक संवाददाता हो गए। ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। छूटने के कुछ समय बाद लेखन प्रारंभ किया।

'फांसी'इनका पहला कहानी संग्रह था, जिसने इनको प्रसिद्ध कहानीकार बना दिया। उपन्यास 'परख'से सन्‌ 1929 में पहचान बनी। 'सुनीता'का प्रकाशन 1935 में हुआ। 'त्यागपत्र' 1937 में और 'कल्याणी' 1939 में प्रकाशित हुए। 1929 में पहला कहानी-संग्रह 'फांसी'छपा। इसके बाद 1930 में 'वातायन',1933 में 'नीलम देश की राजकन्या', 1934 में 'एक रात', 1935 में 'दो चिड़ियां'और 1942 में 'पाजेब'का प्रकाशन हुआ। अब तो 'जैनेन्द्र की कहानियां'सात भागों उपलब्ध हैं। उनके अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं- 'विवर्त,''सुखदा', 'व्यतीत', 'जयवर्धन'और 'दशार्क'। 'प्रस्तुत प्रश्न', 'जड़ की बात', 'पूर्वोदय', 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', 'मंथन', 'सोच-विचार', 'काम और परिवार', 'ये और वे'इनके निबंध संग्रह हैं। तालस्तोय की रचनाओं का इनका अनुवाद उल्लेखनीय है। 'समय और हम'प्रश्नोत्तर शैली में जैनेन्द्र को समझने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है।

प्रमुख कृतियाँ

उपन्यास

'परख' (1929)

'सुनीता' (1935)

'त्यागपत्र' (1937)

'कल्याणी' (1939)

'विवर्त' (1953)

'सुखदा' (1953)

'व्यतीत' (1953)

'जयवर्धन' (1956) कहानी संग्रह

'फाँसी' (1929)

'वातायन' (1930)

'नीलम देश की राजकन्या' (1933)

'एक रात' (1934)

'दो चिड़ियाँ' (1935)

'पाजेब' (1942)

'जयसंधि' (1949)

'जैनेन्द्र की कहानियाँ' (सात भाग) निबंध संग्रह

'प्रस्तुत प्रश्न' (1936)

'जड़ की बात' (1945)

'पूर्वोदय' (1951)

'साहित्य का श्रेय और प्रेय' (1953)

'मंथन' (1953)

'सोच विचार' (1953)

'काम, प्रेम और परिवार' (1953)

'ये और वे' (1954) अनूदित ग्रंथ

'मंदालिनी' (नाटक-1935)

'प्रेम में भगवान' (कहानी संग्रह-1937)

'पाप और प्रकाश' (नाटक-1953)।सह लेखन

'तपोभूमि' (उपन्यास, ऋषभचरण जैन के साथ-1932)।संपादित ग्रंथ

'साहित्य चयन' (निबंध संग्रह-1951)

'विचारवल्लरी' (निबंध संग्रह-1952)

हिन्दी साहित्य में स्थान

जैनन्द्र कुमार का हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान है। जैनेन्द्र पहले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने हिन्दी गद्य को मनोवैज्ञानिक गहरायों से जोड़ा। जिस समय प्रेमचन्द सामाजिक पृष्ठभूमि के उपन्यास और कहानियाँ लिख कर जनता को जीवन की सच्चाइयों से जोड़ने के काम में महारथ सिद्ध कर रहे थे, जब हिन्दी गद्य 'प्रेमचन्द युग'के नाम से जाना जा रहा था, तब उस नयी लहर के मध्य एक बिल्कुल नयी धारा प्रारम्भ करना सरल कार्य नहीं था। आलोचकों और पाठकों की प्रतिक्रिया की चिन्ता किये बिना, कहानी और उपन्यास लिखना जैनेन्द्र के लिये कितना कठिन रहा होगा, इसका अनुमान किया जा सकता है। बहुत से आलोचकों ने जैनेन्द्र के साहित्य के व्यक्तिनिष्ठ वातावरण और स्वतंत्र मानसिकता वाली नायिकाओं की आलेचना भी की परंतु व्यक्ति को रूढ़ियों, प्रचलित मान्यताओं और प्रतिष्ठित संबंधों से हट कर देखने और दिखाने के संकल्प से जैनेन्द्र विचलित नहीं हुए। जीवन और व्यक्ति को बंधी लकीरों के बीच से हटा कर देखने वाले जैनेन्द्र के साहित्य ने हिन्दी साहित्य को नयी दिशा दी जिस पर बाद में हमें अज्ञेय चलते हुए दिखाई देते हैं।

प्रेमचन्द साहित्य के पूरक

मनुष्य का व्यक्तित्त्व सामाजिक स्थितियों और भीतरी चिंतन-चिंताओं से मिल कर बनता है। दोनों में से किसी एक का अभाव उसके होने को खंडित करता है। इस दृष्टि से जैनेन्द्र, प्रेमचन्द युग और प्रेमचन्द साहित्य के पूरक हैं। प्रेमचन्द के साहित्य की सामाजिकता में व्यक्ति के जिस निजत्व की कमी कभी- कभी खलती थी वह जैनन्द्र ने पूरी की। इस दृष्टि से जैनेन्द्र को हिन्दी गद्य में 'प्रयोगवाद'का प्रारम्भकर्ता कहा जा सकता है। उनके प्रारम्भ के उपन्यासों 'परख'(1929), 'सुनीता'(1935) और 'त्यागपत्र'(1937) ने व्यस्क पाठकों को सोचने के लिए बहुत सी नयी समग्री दी। 'हिन्दी साहित्य का इतिहास'में गोपाल राय जी लिखते हैं 'उनके उपन्यासों की कहानी अधिकतर एक परिवार की कहानी होती है और वे ’शहर की गली और कोठरी की सभ्यता’ में ही सिमट कर व्यक्ति-पात्रों की मानसिक गहराइयों में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं।'जैनन्द्र के पात्र बने-बनाये सामाजिक नियमों को स्वीकार कर, उनमें अपना जीवन बिताने की चेष्टा नहीं करते अपितु उन नियमों को चुनौती देते हैं। यह चुनौती प्राय: उनकी नायिकाओं की ओर से आती है जो उनकी लगभग सभी रचनाओं में मुख्य पात्र भी हैं। सन 1930-35 या 40 में स्त्रियों का समाज की चिन्ता किये बिना, विवाह संस्था के प्रति प्रश्न उठाना स्वयं में नयी बात थी।

जैनेन्द्र के पात्रों का व्यक्तित्त्व

जैनेन्द्र के पात्रों में यह शंका, उलझन दिखाई देती है कि स्त्रियाँ संबंधों की मर्यादा में रहते हुए भी स्वतंत्र व्यक्तित्त्व बनाए रखना चाहती हैं जो नि:संदेह भारतीय परिवेश में आज, यानि जैनेन्द्र के इन उपन्यासों के समय के 60-70 वर्ष बाद भी यथार्थ नहीं है जैनन्द्र जानते थे कि वह जिस नारी स्वततंत्रता के विषय में सोच रहे हैं, वह एक दुर्लभ वस्तु है। समाज के स्वीकार और प्रतिक्रिया के प्रश्नों से वे भी उलझे थे इसलिये वे प्रश्नों को उठाते तो हैं किन्तु उनका उत्तर स्पष्ट रूप से नहीं देते बल्कि कहानी को एक मोड़ पर लाकर छोड़ देते जहाँ से पाठक की कल्पना और भाव-बुद्धि अपने इच्छानुसार विचरती है। बहुधा यह स्थिति खीज भी उत्पन्न करती थी विशेषकर उस समय में, जब ये उपन्यास लिखे गये थे। प्रेमचन्द के उपन्यासों में समस्याओं का प्राय: समाधान हुआ करता था, उस समय एक भिन्न प्रकार की समस्या उठा कर, बिना निदान दिए, छोड़ देना निस्संदेह एक नई शुरूआत थी।

उनके उपन्यासों- 'कल्याणी', 'सुखदा', 'विवर्त', 'व्यतीत', 'जयवर्धन'आदि में उनके स्त्री-पात्र समाज की विचारधारा को बदलने में असमर्थ होने के कारण अन्तत: आत्मयातना के शिकार बनते हैं यह आत्मयातना उनके जीवन दर्शन का एक अंग बन जाती है। उनमें समाज से अलग हट कर अपने अस्तित्व को ढूँढने का आत्मतोष तो है किन्तु उस स्वतंत्र अस्तित्व के साथ रह न पाने की निराशा भी है। जैनेन्द्र के उपन्यासों ने निस्संदेह साहित्यक विचारधारा और दर्शन को नई दिशा दी अज्ञेय के उपन्यास इसी दिशा में आगे बढ़े हुए लगते हैं।

जैनेन्द्र की कहानियों में भी हमें यह नई दिशा दिखाई देती है। आलोचकों का मानना है कि 'उन्होंने कहानी को ’घटना’ के स्तर से उठाकर ’चरित्र’ और ’मनोवैज्ञानिक सत्य’ पर लाने का प्रयास किया। उन्होने कथावस्तु को सामाजिक धरातल से समेट कर व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक भूमिका पर प्रतिष्ठित किया।'चाहे उनकी कहानी 'हत्या'हो या 'खेल', 'अपना-अपना भाग्य', 'बाहुबली', 'पाजेब', ध्रुवतारा, 'दो चिड़ियाँ'आदि सभी कहानियों में व्यक्ति-मन की शंकाओं, प्रश्नों को प्रस्तुत करती हैं।

कहा जा सकता है कि जैनेन्द्र के उपन्यासों और कहानियों में व्यक्ति की प्रतिष्ठा, हिन्दी साहित्य में नई बात थी जिसने न केवल व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंध नई व्याख्या की बल्कि व्यक्ति मन को उचित महत्ता भी दिलवाई। जैनेन्द्र के इस योगदान को हिन्दी साहित्य कभी नहीं भूल सकता।

प्रेमचंद और जैनेन्द्र

जैनेन्द्र कुमार प्रेमचंद युग के महत्त्वपूर्ण कथाकार माने जाते हैं। उनकी प्रतिभा को प्रेमचंद ने भरपूर मान दिया। वे समकालीन दौर में प्रेमचंद के निकटतम सहयात्रियों में से एक थे मगर दोनों का व्यक्तित्व जुदा था। प्रेमचंद लगातार विकास करते हुए अंतत: महाजनी सभ्यता के घिनौने चेहरे से पर्दा हटाने में पूरी शक्ति लगाते हुए 'कफ़न'जैसी कहानी और किसान से मजदूर बनकर रह गए। होरी के जीवन की महागाथा गोदान लिखकर विदा हुए। जैनेन्द्र ने जवानी के दिनों में जिस वैचारिक पीठिका पर खड़े होकर रचनाओं का सृजन किया जीवन भर उसी से टिके रहकर मनोविज्ञान, धर्म, ईश्वर, इहलोक, परलोक पर गहन चिंतन करते रहे। समय और हम उनकी वैचारिक किताब है। प्रेमचंद के अंतिम दिनों में जैनेन्द्र ने अपनी आस्था पर जोर देते हुए उनसे पूछा था कि अब ईश्वर के बारे में क्या सोचते हैं। प्रेमचंद ने दुनिया से विदाई के अवसर पर भी तब जवाब दिया था कि इस बदहाल दुनिया में ईश्वर है ऐसा तो मुझे भी नहीं लगता। वे अंतिम समय में भी अपनी वैचारिक दृढ़ता बरकरार रख सके यह देखकर जैनेन्द्र बेहद प्रभावित हुए। वामपंथी विचारधारा से जुड़े लेखकों के वर्चस्व को महसूस करते हुए जैनेन्द्र जी कलावाद का झंडा बुलंद करते हुए अपनी ठसक के साथ समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर अलग नजर आते थे। गहरी मित्रता के बावजूद प्रेमचंद और जैनेन्द्र एक दूसरे के विचारों में भिन्नता का भरपूर सम्मान करते रहे और साथ- साथ चले।

सम्मान और पुरस्कार

हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 1929 में 'परख' (उपन्यास) के लिए

भारत सरकार शिक्षा मंत्रालय पुरस्कार, 1952 में 'प्रेम में भगवान' (अनुवाद) के लिए

1966 में साहित्य अकादमी पुरस्कार 'मुक्तिबोध' (लघु उपन्यास) के लिए

पद्म भूषण, 1971

साहित्य अकादमी फैलोशिप, 1974

हस्तीमल डालमिया पुरस्कार (नई दिल्ली)

उत्तर प्रदेश राज्य सरकार (समय और हम-1970)

उत्तर प्रदेश सरकार का शिखर सम्मान 'भारत-भारती'

मानद डी. लिट् (दिल्ली विश्वविद्यालय, 1973, आगरा विश्वविद्यालय,1974)

हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग (साहित्य वाचस्पति-1973)

विद्या वाचस्पति (उपाधिः गुरुकुल कांगड़ी)

साहित्य अकादमी की प्राथमिक सदस्यता

प्रथम राष्ट्रीय यूनेस्को की सदस्यता

भारतीय लेखक परिषद् की अध्यक्षता

दिल्ली प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापतित्व

जैनेन्द्र सा दूसरा नहीं

हिन्दी के आलोचक प्रो. नामवर सिंह ने कहा है कि विश्व साहित्य में भारतीय कहानियों का अपना मौलिक चरित्र है और विश्व साहित्य में जब कभी भारतीय कहानियों की बात होगी तो प्रेमचंद के साथ जैनेन्द्र को जरूर याद किया जाएगा। उन्होंने जैनेन्द्र को याद करते हुए कहा कि "नई कहानी से जुड़े लोगों ने उनपर बड़े आरोप लगाए। एक अधिवेशन में कोलकाता बुलाकर खूब खरीखोटी सुनाई लेकिन जैनेन्द्र जरा भी उत्तेजित नहीं हुए। आज ऐसे कम साहित्यकार हैं जो अपनी आलोचनाओं को इतनी सहजता से सुनते हैं।"उन्होंने कहा कि वह किस्सागोई के कथाकार नहीं थे और न ही उनकी कहानियां घटना प्रधान होती थी। वह तो प्रतिक्रियावादी थे। इस मौके पर उन्होंने जैनेन्द्र की 'खेल'और 'नीलम देश की राजकन्या'नामक कहानियों की याद दिलाई। जैनेन्द्र के साथ लंबे समय तक रहे प्रदीप कुमार ने कहा, "वह कहानी किसी भी पंक्ति से शुरू कर देते थे। कहते थे- तुम्हीं पहली पंक्ति कह दो! वह कबीर के भक्त थे और हमेशा कबीर के दोहे गाते रहते थे। कठिन परिस्थितियों में भी सरकार से सहयता की उम्मीद नहीं रखते थे और न ही उसे स्वीकारते थे।"कवि अशोक वाजपेयी ने कहा, "सत्ता के गलियारों में गहरी पैठ रखने वालों से वह बराबरी का संवाद करते थे और स्पष्टत: अपनी बात कहते थे। वह मानते थे कि भाषा हो तो शृंगारहीन हो। उन्हें शब्द के संकोच का कथाकार कहा जा सकता है।"

निधन

24 दिसंबर 1988 को उनका निधन हो गया।

साभार : भारत डिस्कवरी 

VISHNU PRABHAKAR - विष्णु प्रभाकर

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विष्णु प्रभाकर (जन्म- 21 जून, 1912 और मृत्यु- 11 अप्रैल, 2009) अपने साहित्य में भारतीय वाग्मिता और अस्मिता को व्यंजित करने के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। विष्णु प्रभाकर जी ने कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, निबंध, एकांकी, यात्रा-वृत्तांत और कविता आदि प्रमुख विधाओं में अपनी बहुमूल्य रचनाएँ की हैं। प्रभाकर जी ने आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशन संबंधी मीडिया के प्रत्येक क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की थी। देश-विदेश की अनेक यात्राएँ करने वाले विष्णुजी जीवन-पर्यन्त पूर्णकालिक मसिजीवी रचनाकार के रूप में साहित्य साधना में लीन रहे थे।

जीवन परिचय

विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, सन 1912 को मीरापुर, ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तर प्रदेश) एक सम्मानित वैश्य परिवार में हुआ था। इन्हें इनके एक अन्य नाम 'विष्णु दयाल'से भी जाना जाता है। इनके पिता का नाम दुर्गा प्रसाद था, जो धार्मिक विचारधारा वाले व्यक्तित्व के धनी थे। प्रभाकर जी की माता महादेवी पढ़ी-लिखी महिला थीं, जिन्होंने अपने समय में पर्दाप्रथा का घोर विरोध किया था। प्रभाकर जी की पत्नी का नाम सुशीला था।

शिक्षा

विष्णु प्रभाकर की आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई थी। उन्होंने सन 1929 में चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल, हिसार से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इसके उपरांत नौकरी करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय से 'भूषण', 'प्राज्ञ', 'विशारद'और 'प्रभाकर'आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण कीं। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही बी.ए. की डिग्री भी प्राप्त की थी।

व्यवसाय

प्रभाकर जी के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। यही कारण था कि उन्हें काफ़ी कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ा था। वे अपनी शिक्षा भली प्रकार से प्राप्त नहीं कर पाये थे। अपनी घर की परेशानियों और ज़िम्मेदारियों के बोझ से उन्होंने स्वयं को मज़बूत बना लिया। उन्होंने चतुर्थ श्रेणी की एक सरकारी नौकरी प्राप्त की। इस नौकरी के जरिए पारिश्रमिक रूप में उन्हें मात्र 18 रुपये प्रतिमाह का वेतन प्राप्त होता था। विष्णु प्रभाकर जी ने जो डिग्रियाँ और उच्च शिक्षा प्राप्त की, तथा अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह निभाया, वह उनके अथक प्रयासों का ही परिणाम था।

लेखन कार्य

प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी महात्मा गाँधी जी के जीवन आदर्शों से प्रेम के कारण प्रभाकर जी का रुझान कांग्रेस की तरफ़ हो गया। वे आज़ादी के दौर में बजते राजनीतिक बिगुल में उनकी लेखनी का भी एक उद्देश्य बन गया था, जो आज़ादी के लिए संघर्षरत थी। अपने लेखन के दौर में वे प्रेमचंद, यशपालऔर अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री भी रहे, किन्तु रचना के क्षेत्र में उनकी अपनी एक अलग पहचान बन चुकी थी। 1931 में 'हिन्दी मिलाप'में पहली कहानी दीवाली के दिन छपने के साथ ही उनके लेखन का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह जीवनपर्यंत निरंतर चलता रहा। नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने से वे शरतचन्द्र की जीवनी 'आवारा मसीहा'लिखने के लिए प्रेरित हुए, जिसके लिए वे शरतचन्द्र को जानने के लिये लगभग सभी स्रोतों और जगहों तक गए। उन्होंने बांग्ला भाषा भी सीखी और जब यह जीवनी छपी, तो साहित्य में विष्णु जी की धूम मच गयी। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद 'आवारा मसीहा'उनकी पहचान का पर्याय बन गयी। इसके बाद में 'अर्द्धनारीश्वर'पर उन्हें बेशक साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी प्राप्त हुआ, लेकिन 'आवारा मसीहा'ने साहित्य में उनकी एक अलग ही पहचान पुख्ता कर दी।

प्रथम नाटक रचना

विष्णु प्रभाकर जी ने अपना पहला नाटक 'हत्या के बाद'लिखा और हिसार में एक नाटक मंडली के साथ भी कार्यरत हो गये। इसके पश्चात प्रभाकर जी ने लेखन को ही अपनी जीविका बना लिया। आज़ादी के बाद वे नई दिल्ली आ गये और सितम्बर 1955 में आकाशवाणी में नाट्यनिर्देशक नियुक्त हो गये, जहाँ उन्होंने 1957 तक अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। इसके बाद वे तब सुर्खियों में आए, जब राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोधस्वरूप उन्होंने'पद्मभूषण'की उपाधि वापस करने घोषणा कर दी। विष्णु प्रभाकर जी आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशन संबंधी मीडिया के विविध क्षेत्रों में पर्याप्त लोकप्रिय रहे। देश-विदेश की अनेक यात्राएँ करने वाले विष्णुजी जीवनपर्यंत पूर्णकालिक मसिजीवी रचनाकार के रूप में साहित्य की साधना में लिप्त रहे थे।

कृतियाँ

विष्णु प्रभाकर जी की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं

कहानी संग्रह - 'संघर्ष के बाद', 'धरती अब भी धूम रही है', 'मेरा वतन', 'खिलौने', 'आदि और अन्त', 'एक आसमान के नीचे', 'अधूरी कहानी', 'कौन जीता कौन हारा', 'तपोवन की कहानियाँ', 'पाप का घड़ा', 'मोती किसके'।

बाल कथा संग्रह - 'क्षमादान', 'गजनन्दन लाल के कारनामे', 'घमंड का फल', 'दो मित्र', 'सुनो कहानी', 'हीरे की पहचान'।

उपन्यास - 'ढलती रात', 'स्वप्नमयी', 'अर्द्धनारीश्वर', 'धरती अब भी घूम रही है', 'पाप का घड़ा', 'होरी', 'कोई तो', 'निशिकान्त', 'तट के बंधन', 'स्वराज्य की कहानी'।

आत्मकथा - 'क्षमादान'और 'पंखहीन'नाम से उनकी आत्मकथा 3 भागों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी है। 'और पंछी उड़ गया', 'मुक्त गगन में'।

नाटक - 'सत्ता के आर-पार', 'हत्या के बाद', 'नवप्रभात', 'डॉक्टर', 'प्रकाश और परछाइयाँ', 'बारह एकांकी', अब और नही, टूट्ते परिवेश, गान्धार की भिक्षुणी और 'अशोक'

जीवनी - 'आवारा मसीहा', 'अमर शहीद भगत सिंह'।

यात्रा वृतान्त - 'ज्योतिपुन्ज हिमालय', 'जमुना गंगा के नैहर में', 'हँसते निर्झर दहकती भट्ठी'।

संस्मरण - 'हमसफर मिलते रहे'।

कविता संग्रह - ‘चलता चला जाऊंगा’ (एकमात्र कविता संग्रह)।

पुरस्कार व सम्मान

विष्णु प्रभाकर जी की प्रमुख रचना 'आवारा मसीहा'सर्वाधिक चर्चित जीवनी है। इस जीवनी रचना के लिए इन्हें 'पाब्लो नेरूदा सम्मान', 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार'जैसे कई विदेशी पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इनका लिखा प्रसिद्ध नाटक 'सत्ता के आर-पार'पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'मूर्ति देवी पुरस्कार'प्रदान किया गया हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रभाकर जी को 'शलाका सम्मान'भी मिल चुका है। 'पद्मभूषण'पुरस्कार भी मिला, किंतु राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोधस्वरूप उन्होंने 'पद्मभूषण'की उपाधि वापस करने घोषणा कर दी।

निधन

भारत के प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकारों में से एक विष्णु प्रभाकर जी का निधन 96 वर्ष की उम्र में 11 अप्रैल, 2009 को नई दिल्ली में हो गया। हिन्दी साहित्य के इस अमूल्य मोती के चले जाने से साहित्य के एक अद्भुत सूरज का अंत हो गया।

साभार : भारत डिस्कवरी

GIRIRAJ KISHOR - गिरिराज किशोर

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गिरिराज किशोर (अंग्रेज़ी: Giriraj Kishore; जन्म- 8 जुलाई, 1937, मुजफ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश)हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार होने के साथ-साथ एक सशक्त कथाकार, नाटककार और आलोचक हैं। एक कहानीकार के रूप में भी इन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित की है। गिरिराज किशोर के सम-सामयिक विषयों पर विचारोत्तेजक निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित होते रहे हैं। आपने बालकों के लिए भी अनेक लेख लिखे हैं। इनका उपन्यास 'ढाई घर'अत्यन्त लोकप्रिय हुआ था। वर्ष 1991 में प्रकाशित इस कृति को 1992 में ही 'साहित्य अकादमी पुरस्कार'से सम्मानित कर दिया गया था। गिरिराज किशोर द्वारा लिखा गया 'पहला गिरमिटिया'नामक उपन्यास महात्मा गाँधी केअफ़्रीका प्रवास पर आधारित था, जिसने इन्हें विशेष पहचान दिलाई।

शिक्षा व कार्यक्षेत्र

गिरिराज किशोर का जन्म 8 जुलाई, 1937 को उत्तर प्रदेश के मुजफ़्फ़रनगर में एक संपन्न वैश्य अग्रवाल परिवार में हुआ था। अपनी शिक्षा के अंतर्गत उन्होंने 'मास्टर ऑफ़ सोशल वर्क'की डिग्री 1960 में 'समाज विज्ञान संस्थान',आगरा से प्राप्त की थी। गिरिराज किशोर 1960 से 1964 तक उत्तर प्रदेश सरकार में सेवायोजन अधिकारी व प्रोबेशन अधिकारी भी रहे थे। 1964 से 1966 तक इलाहाबाद में रहकर स्वतन्त्र लेखन किया। फिर जुलाई, 1966 से 1975 तक 'कानपुर विश्वविद्यालय'में सहायक और उप-कुलसचिव के पद पर सेवारत रहे। आई.आई.टी. कानपुर में 1975 से 1983 तक रजिस्ट्रार के पद पर रहे और वहाँ से कुलसचिव के पद से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया। वर्ष 1983 से 1997 तक 'रचनात्मक लेखन एवं प्रकाशन केन्द्र'के अध्यक्ष रहे। गिरिराज किशोर साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की कार्यकारिणी के भी सदस्य रहे। रचनात्मक लेखन केन्द्र उनके द्वारा ही स्थापित किया गया था। आप हिन्दी सलाहकार समिति, रेलवे बोर्ड के सदस्य भी रहे।

फैलोशिप

वर्ष 1998 से 1999 तक संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार ने गिरिराज किशोर को 'एमेरिट्स फैलोशिप'दी। 2002 में 'छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर द्वारा डी.लिट. की मानद् उपाधि दी गयी। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला में मई, 1999-2001 तक फैलो रहे।

प्रतिभा सम्पन्न लेखक

गिरिराज किशोर के सम-सामयिक विषयों पर विचारोत्तेजक निबंध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। ये बालकों के लिए भी लिखते रहे हैं। इस तरह गिरिराज किशोर एक बहुआयामी प्रतिभा सम्पन्न लेखक हैं। गिरिराज किशोर को सर्वाधिक कीर्ति औपन्यासिक लेखन के माध्यम से ही प्राप्त हुई। वर्तमान में गिरिराज जी स्वतंत्र लेखन तथा कानपुर से निकलने वाली हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका 'अकार'त्रैमासिक के संपादन में संलग्न हैं।

प्रसिद्धि

लेखक की शुरुआती दौर में लिखी गयी किसी मशहूर कृति की छाया से बाद की रचनायें निकल नहीं पातीं। गिरिराज जी का लेखन इसका अपवाद है और इनकी हर नयी रचना का क़द पिछली रचना से के क़द से ऊंचा होता गया। देश के इस प्रख्यात साहित्यकार को 'कनपुरिये'अपना ख़ास गौरव मानते हैं। अपनी विनम्रता, सौजन्यता के लिये जाने जाने वाले गिरिराज जी मानते हैं - सख्त से सख्त बात शिष्टाचार के आज घेरे में रहकर भी कही जा सकती है। हम लेखक हैं। शब्द ही हमारा जीवन है और हमारी शक्ति भी ।उसको बढ़ा सकें तो बढ़ायें, कम न करें। भाषा बड़ी से बड़ी गलाजत ढंक लेती है।

रचनाएँप्रकाशित कृतियां -

उपन्यासों के अतिरिक्त दस कहानी संग्रह, सात नाटक, एक एकांकी संग्रह, चार निबंध संग्रह तथा महात्मा गांधी की जीवनी 'पहला गिरमिटिया'प्रकाशित हो चुका है।कहानी संग्रह -

नीम के फूल,

चार मोती बेआब,

पेपरवेट,

रिश्ता और अन्य कहानियां,

शहर -दर -शहर,

हम प्यार कर लें,

जगत्तारनी एवं अन्य कहानियां,

वल्द रोज़ी,

यह देह किसकी है?

कहानियां पांच खण्डों में 'मेरी राजनीतिक कहानियां'

'हमारे मालिक सबके मालिक'उपन्यास

इनके द्वारा लिखित उपन्यास इस प्रकार हैं-

लोग (1966),

चिड़ियाघर (1968),

यात्राएँ (1917),

जुगलबन्दी (1973),

दो (1974),

इन्द्र सुनें (1978),

दावेदार (1979),

यथा प्रस्तावित (1982),

तीसरी सत्ता (1982),

परिशिष्ट (1984),

असलाह (1987),

अंर्तध्वंस (1990),

ढाई घर (1991),

यातनाघर (1997),

पहला गिरमिटिया (1999)।

आठ लघु उपन्यास अष्टाचक्र के नाम से दो खण्डों में ।

पहला गिरमिटिया - गाँधी जी के दक्षिण अफ्रीकी अनुभव पर आधारित महाकाव्यात्मक उपन्यास।नाटक -

नरमेध,

प्रजा ही रहने दो,

चेहरे - चेहरे किसके चेहरे,

केवल मेरा नाम लो,

जुर्म आयद,

काठ की तोप।लघुनाटक

बच्चों के लिए एक लघुनाटक 'मोहन का दु:ख'लेख/निबंध -

संवादसेतु,

लिखने का तर्क,

सरोकार,

कथ-अकथ,

समपर्णी,

एक जनभाषा की त्रासदी,

जन-जन सनसत्ता

पुरस्कार

गिरिराज किशोर का उपन्यास ‘ढाई घर’ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। 1991 में प्रकाशित इस कृति को 1992 में ही 'साहित्य अकादमी पुरस्कार'प्राप्त हुआ।महात्मा गांधी के अफ़्रीका प्रवास पर आधारित ‘पहला गिरमिटिया’ भी काफ़ी लोकप्रिय हुआ, पर ‘ढाई घर’ औपन्यासिक क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना चुका है। राष्ट्रपति द्वारा 23 मार्च 2007 को 'साहित्य और शिक्षा'के लिए 'पद्मश्री'पुरस्कार से विभूषित किया गया था। उत्तर प्रदेश के 'भारतेन्दु पुरस्कार'नाटक पर, 'परिशिष्ट'उपन्यास पर 'मध्यप्रदेश साहित्य परिषद'के 'वीरसिंह देव पुरस्कार', 'उत्तर प्रदेश हिन्दी सम्मेलन'के 'वासुदेव सिंह स्वर्ण पदक'तथा 'ढाई घर'उ.प्र.के लिये हिन्दी संस्थान के 'साहित्य भूषण'पुरस्कार से सम्मानित किये गये। 'भारतीय भाषा परिषद'का 'शतदल सम्मान'मिला। 'पहला गिरमिटिया'उपन्यास पर 'के.के. बिरला फाउण्डेशन'द्वारा 'व्यास सम्मान'और जे. एन. यू. में आयोजित 'सत्याग्रह शताब्दी विश्व सम्मेलन'में सम्मानित किया गया।

साभार : भारत डिस्कवरी 

धंधा करते मारवाड़ी

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पुरानी कहावत है कि ‘जहां न जाए गाड़ी, वहां जाए मारवाड़ी। यह पूरी तरह से सही भी है। मारवाड़ी इस देश के कोने-कोने में व्यापार, उद्योग चलाते मिल जाएंगे। गुजरातियों की तरह धंधा करना तो उनके खून में होता है। जब 80 के दशक में असम में छात्र आंदोलन पूरे जोर शोर से चल रहा था तब दिल्ली से ट्रेन द्वारा गुवाहाटी पहुंचने में 36 घंटे लगे थे। वहां के मारवाड़ी गोयनका परिवार से मित्रता हो गई। पता चला कि उनके पूर्वज दो सौ साल पहले ही वहां आकर बस गए थे। वहां तब रेल भी नहीं थी। वे न केवल वहां सफलतापूर्वक अपना काम धंधा कर रहे थे, बल्कि वहां वे समाज में पूरी तरह से रच बस भी गए थे। मारवड़ियों की सबसे बड़ी खूबी यही होती है कि वे बिना किसी से टकराए या प्रतिस्पर्धा किए अपना धंधा करते हैं। दूसरी अहम बात यह है कि वे अपनी संपन्नता का दिखावा नहीं करते हैं। मैंने यहीं बात अपने शहर के जाने माने उद्योगपतियों जेके व केडिया के घरों में भी देखी।

जेके अर्थात जुग्गीलाल कमलापत सिंहानिया ने कानपुर में जो भव्य मंदिर बनवाया उसकी गिनती इस देश के आधुनिकतम मंदिरों में की जा सकती है। जहां स्वच्छता व प्रबंधन देखने लायक है। तब इस परिवार के बारे में कहा जाता था कि जब कमलापत सिंहानिया कानपुर आए तो उनके हाथों में सिर्फ एक लोटा था। उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था। उन्होंने वह लोटा एक भड़भूजे (चना चबेना भून कर बेचने वाले) के पास गिरवी रख कर उससे चने लिए। बाद में अपन साम्राज्य स्थापित किया।

किवंदती थी कि जब उन्होंने वह लोटा वापस लेना चाहा तो उसने उसे लौटाने से इनकार कर दिया। जब तक वह जीवित रहा वह हर साल उस लोटे को एक बांस में टांग कर अपनी दुकान के आगे लटका देता था और जोर-जोर से यह कहता कि यह जेके का लोटा है। जब उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था तब मैंने उन्हें चने दिए थे। मारवाड़ियों के बारे में ऐसे तमाम किस्से कहानियां की भरमार है। उनकी सफलता की सबसे बड़ी वजह यह है कि वे बड़े से बड़ा जोखिम उठाने के लिए तैयार रहते हैं उनके बारे में कहा जाता है कि कभी किसी मारवाड़ी के साथ प्रतिस्पर्धा मत करना। इसी गुण के चलते बिड़ला ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जूट के कारोबार में करोड़ों बनाए थे। यही स्थिति रामकृष्ण डालमिया की भी थी। उन्होंने तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु तक से टकराव ले लिया था और इसकी कीमत भी चुकाई।

रामकृष्ण डालमिया राजस्थान के न होकर हरियाणा की राजनीति के गढ़ माने जाने वाले शहर रोहतक के थे। जहां के सर छोटू राम से लेकर भूपिंदर सिंह हुड्डा तक हैं। वे काफी धनी परिवार से थे हालांकि जब वे 1930 के मंदी के दौर में कलकत्ता पहुंचे तो उनकी आर्थिक स्थित काफी कमजोर थी। जब वे महज 22 साल के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। उन पर अपने परिवार की जिम्मेदारी आ पड़ी। उनके परिवार में उनकी मां, दादी, तीन बहनें व पत्नी थे। उन्होंने कलकत्ता में 13 रुपए प्रति माह किराए पर एक कमरा लिया व वहीं रहते हुए अपना धंधा शुरु कर दिया। चांदी के प्रति उनका खास लगाव था। एक ज्योतिषी ने उनसे कहा था कि अगर तुम चांदी का धंधा करोगे तो बहुत फूलो फलोगे। उन्होंने इसमें सट्टेबाजी की और काफी नुकसान उठाया। एक मौका तो ऐसा भी आया कि वे दिवालिया घोषित कर दिए गए। बाजार में कोई उनसे बात तक करने को तैयार नहीं था। उस दौरान उन्हें लंदन से टेलीग्राम मिला कि चांदी के दाम बढ़ने वाले हैं। उस समय उनकी जेब में एक रुपया तक नहीं था। वे दौड़कर बाजार गए पर कोई भी उनकी मदद करने के लिए तैयार नहीं हुआ। सबने उनका मखौल ही उड़ाया। थक हार कर वे अपने ज्योतिषी के पास गए जो कि काफी पैसे वाला था। वह 7500 पौंड की चांदी खरीदने को तैयार हो गया। इसमें डालमिया को 100 का कमीशन मिलना था। चूंकि उनकी जेब खाली थी इसलिए ज्योतिषी ने उन्हें 10 रुपए देते हुए कहा कि तार घर जाओ और लदंन टेलीग्राम भेज दो। उनके पास टांगे के लायक पैसे भी नहीं थे इसलिए वे ट्राम पकड़कर टेलीग्राफ आफिस पहुंचे और तार कर दिया। अगले दिन जब वे गंगा स्नान कर रहे थे तो उनके पास ज्योतिषी का नौकर आया और बोला कि वे चाहते हैं कि यह सौदा न किया जाए। वे सन्न रह गए थे। तुरंत ज्योतिषी के पास पहुंचे उसे बहुत समझाया पर वह कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं था। वे दुखी हो गए। घर लौटे तो उन्हें तार मिला कि सौदा हो गया था। बाजार नीचे आ जाने के कारण उन्हें तगड़ा नुकसान हुआ है एक दिन में यह पूंजी घट कर आधी रह गई थी। अगले कुछ दिनों में उनकी किस्मत ने साथ दिया और उन्होंने इस धंधे में बहुत मोटा मुनाफा कमाया। उन्होंने मुनाफा वसूली करने की जगह कुछ और पैसा लगना चाहा। इसके लिए अपनी पत्नी का एकमात्र हार चुरा कर उसे दो सौ रुपए में गिरवी पर रख दिया और इसके लिए 10 हजार पौंड का जोखिम लिया। किस्मत ने साथ दिया और चांदी के दाम फिर बढ़ गए। इस मुनाफे के जरिए उन्होंने पुनः किसी और एजेंट के माध्यम से चांदी खरीदी। अगले चंद दिनों में वे अपनी पूंजी सात गुना कर चुके थे।

उनका कोई दोस्त नहीं था। उन्होंने अपनी मां को सारी बात बताई। उनकी मां को जब बीवी का जेवर गिरवी रखने की बात पता चली तो वे काफी दुखी हुई। उन्होंने उनसे कहा कि इसे तुरंत छुड़ा कर ले आओ और भविष्य में फिर कभी ऐसा काम नहीं करना। उन्होंने कहा कि हम लोग 50 रुपए महीने में घर का खर्च चला सकते हैं। यह सुनने के बाद उन्होंने अपने एजेंट को तार भेज कर उससे मुनाफा वसूली करने को कहा। किस्मत उनका साथ दे रही थी। एजेंट को तार नहीं मिला। इस बीच चांदी का बाजार चढ़ता गया और अंततः उनका मुनाफा 15 गुना बढ़ गया। अब उनके पास धंधा करने के लिए पर्याप्त पैसा था। उन्होंने उद्योगों और रियल एस्टेट का साम्राज्य खड़ा किया। एक समय तो ऐसा था कि उनकी गिनती देश के तीन सबसे बड़े उद्योगपतियों में होती थीं। उनके बेटे संजय डालमिया आज भी अपने 30 जनवरी, मार्ग स्थित विशाल घर में जब किसी को खाने पर आमंत्रित करते हैं तो खाना चांदी के बर्तनों में परोसा जाता है जो कि आम क्राकरी की तुलना में बेहद भारी होते हैं।

ज्यादातर मारवाड़ी राजस्थान मूल के हैं। इनमें से भी अधिकांश शेखावटी के रहने वाले हैं। जाने माने उद्योगपति जीडी बिड़ला के बाबा शिव नारायण जब मुंबई गए तो तो वे कुछ एक ‘बासा’में ठहरे थे। बासा एक ऐसी लॉज होती थी, जिसे मारवाड़ी मिल कर चलाते थे। वह बहुत कम पैसे में सोने व खाने की व्यवस्था हो जाती थी। यह मूलतः व्यापार के गुरुकुल साबित होते थे। जहां कि मारवाड़ी आपसी बातचीत व अनुभवों के जरिए धंधे के गुण सीखते थे। जब टेलीग्राम का आविष्कार नहीं हुआ था तब यह लोग व्यापरिक सूचनाओं के आदान-प्रदान करने के लिए कबूतरों और शीशे का इस्तेमाल करते थे। वे दर्पण के जरिए संकेत भेजते थे। आज मारवाड़ी दुनिया के हर कोने में छाए हुए हैं। जब कोई उनसे नाराज हो जाता है तो यह कहता है कि ‘सड़क बिगाड़े बैलगाड़ी और धंधा बिगाड़े मारवाड़ी।’

साभार : विनम्र, नया इंडिया 

VASUDEV SHARAN AGRAWAL - वासुदेव शरण अग्रवाल

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वासुदेव शरण अग्रवाल (अंग्रेज़ी: Vasudev Sharan Agrawal; जन्म- 7 अगस्त, 1904,ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 26 जुलाई, 1966) भारत के प्रसिद्ध विद्वानों में से एक थे। वे भारत के इतिहास, संस्कृति, कला, साहित्य और प्राच्य विद्या आदि विषयों के विशेषज्ञ थे। वासुदेव शरण अग्रवाल 'हिन्दी विश्वकोश सम्पादक मण्डल'के प्रमुख सदस्य थे। उन्होंने मथुरा संग्रहालय (उत्तर प्रदेश) के संग्रहाध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष'में भारत की संस्कृति, कला और साहित्य आदि पर प्रकाश डाला गया है। उन्हें साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत भी किया गया था।

प्राच्य विद्या के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का जन्म 7 अगस्त, 1904 ई. को ग़ाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश) के 'खेड़ा'नामक गाँव में हुआ था। इनकी छोटी उम्र में ही इनका माँ का देहांत हो गया था, जिस कारण दादी ने ही उनका लालन-पालन किया।

जिस समय 1920 में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'भारतीय इतिहास'में प्रसिद्ध अपना 'असहयोग आंदोलन'आंरभ किया, उस समय वासुदेव शरण लखनऊ में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। साथ ही वे एक अन्य विद्वान से संस्कृत का विशेष अध्ययन भी कर रहे थे। आंदोलन के प्रभाव से उन्होंने सरकारी विद्यालय छोड़ दिया और खादी के वस्त्र धारण कर लिए। किंतु जब गाँधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया तो उन्होंने फिर औपचारिक शिक्षा आरंभ की और 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय'से स्नातक बन कर एम.ए और एलएल. बी. की शिक्षा के लिए लखनऊ आ गए। आगे चलकर इसी विश्वविद्यालय से उन्हें पी.एच.डी. और डी.लिट की उपाधियाँ मिलीं।

वासुदेव शरण अग्रवाल भारत के इतिहास, संस्कृति, कला एवं साहित्य के विद्वान थे। वे 'साहित्य अकादमी'द्वारा पुरस्कृत हिन्दी गद्यकार थे। 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष'नामक उनकी कृति भारतविद्या का अनुपम ग्रन्थ है। इसमें उन्होने पाणिनि के 'अष्टाध्यायी'के माध्यम से भारत की संस्कृति एवं जीवन दर्शन पर प्रकाश डाला है। उन्होने साहित्य के सहारे भारत का पुन: अनुसंधान किया है, जिसमें उन्होंने वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण विधि का प्रयोग किया है। उनकी निम्नलिखित कृतियाँ भी बहुत प्रसिद्ध हैं-

"मलिक मुहम्मद जायसी - पद्मावत"

"हर्षचरित - एक सांस्कृतिक अध्ययन"

वासुदेव शरण अग्रवाल 'हिन्दी विश्वकोश'के सम्पादक-मण्डल के प्रमुख सदस्य थे।

वासुदेव शरण अग्रवाल ने उत्तर प्रदेश में 'मथुरा संग्रहालय'के क्यूरेटर (संग्रहाध्यक्ष) के रूप में भी अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। वे लखनऊ के प्रांतीय संग्रहालय के भी क्यूरेटर रहे। स्वतंत्रता के बाद दिल्ली में स्थापित 'राष्ट्रीय पुरातत्त्व संग्रहालय'की स्थापना में इनका प्रमुख योगदान था। छह वर्ष तक दिल्ली में रहने के उपरांत वे 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय'के 'भारतीय विद्या संस्थान'के प्रमुख बनकर वाराणसी चले गए। 1951 से 1966 तक जीवन पर्यंत वे इस पद पर रहे। पंद्रह वर्षों के इस कार्यकाल में उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण, महाभारत, काव्य साहित्य सृजित किया। वह अपने क्षेत्र में युग निर्माणकारी माने जाते हैं। फुटकर निबंधों के अतिरिक्त इन विषयों पर उन्होंने हिन्दी में लगभग 36 और अंग्रेजी में 23 ग्रंथों की रचना की थी। इनमें वेद विद्या संबंधी ग्रंथ हैं, पुराणों का अध्ययन है, महाभारत की सांस्कृतिक मीमांसा है, 'मेघदूत', 'कादम्बरी', 'पद्मावत'जैसे ग्रंथों की व्याख्या है। अपने इस विशेष योगदान के कारण उनका विद्वानों में और साधारण पाठकों दोनों में बड़ा सम्मान था।

वासुदेव शरण अग्रवाल का निधन 26 जुलाई, 1966 को हुआ।

साभार : भारत डिस्कवरी 

KEDARNATH AGRAWAL - केदारनाथ अग्रवाल

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केदारनाथ अग्रवाल (अंग्रेज़ी: Kedarnath Agarwal, जन्म: 1 अप्रैल, 1911 - मृत्यु: 22 जून,2000) प्रगतिशील काव्य-धारा के एक प्रमुख कवि हैं। उनका पहला काव्य-संग्रह 'युग की गंगा'देश की आज़ादी के पहले मार्च, 1947 में प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए यह संग्रह एक बहुमूल्य दस्तावेज़ है। केदारनाथ अग्रवाल ने मार्क्सवादी दर्शन को जीवन का आधार मानकर जनसाधारण के जीवन की गहरी व व्यापक संवेदना को अपने कवियों में मुखरित किया है। कवि केदारनाथ की जनवादी लेखनी पूर्णरूपेण भारत की सोंधी मिट्टी की देन है। इसीलिए इनकी कविताओं में भारत की धरती की सुगंध और आस्था का स्वर मिलता है।

अपनी कविता से जन-गण-मन को मानवता का स्वाद चखाने वाले अमर कवि केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1 अप्रैल, 1911 को उत्तर प्रदेश के बाँदा नगर के कमासिन गाँव में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिताजी हनुमान प्रसाद अग्रवाल और माताजी घसिट्टो देवी थी। केदार जी के पिताजी स्वयं कवि थे और उनका एक काव्य संकलन ‘मधुरिम’ के नाम से प्रकाशित भी हुआ था। केदार जी का आरंभिक जीवन कमासिन के ग्रामीण माहौल में बीता और शिक्षा दीक्षा की शुरूआत भी वहीं हुई। तदनंतर अपने चाचा मुकुंदलाल अग्रवाल के संरक्षण में उन्होंने शिक्षा पाई। क्रमशः रायबरेली, कटनी,जबलपुर, इलाहाबाद में उनकी पढ़ाई हुई। इलाहाबाद में बी.ए. की उपाधि हासिल करने के पश्चात् क़ानूनी शिक्षा उन्होंने कानपुर में हासिल की। तत्पश्चात् बाँदा पहुँचकर वहीं वकालत करने लगे थे

बचपन में ग्रामीण परिवेश में रहते केदार जी के मन में सबके साथ मिल-जुलकर रहने के संस्कार पड़े थे और प्रकृति के प्रति अनन्य प्रेम व लगाव भी उत्पन्न हुआ था। बचपन से ही कविता लिखने में रुचि उत्पन्न हुई थी, कारण उनके पिताजी की कवि कर्म में रुचि, वहीं से केदार जी को काव्य-सृजन की प्रेरणा मिली थी। बचपन में घर-परिवार से मिले संस्कारों ने उन्हें गरीब और पीड़ितवर्ग के लोगों के संघर्षपूर्ण जीवन से वाकिफ़ होने का अवसर दिया था। कालांतर में क़ानूनी शिक्षा हासिल करते समय उन्हें इस वर्ग के उद्धार के उपाय तब सूझने लगे जब वे मार्क्सवाद के परिणामस्वरूप उत्पन्न प्रगतिशील विचारधारा से परिचित होने का मौका मिला। यह उनके जीवन का आत्ममंथन का दौर था, जिसने आगे चलकर उन्हें एक समर्पित वकील व अनूठे कवि बनने में योग दिया।

"कवि चेतन सृष्टि के कर्ता हैं। हम कवि लोग ब्रह्मा हैं। कवि को महाकाल मान नहीं सकता । मैं उसी की लड़ाई लड़ रहा हूँ।" - केदारनाथ अग्रवाल “कविता जीवन को उदात्त बनाती है” मानने वाले केदारनाथ अग्रवाल ने लगभग नौ दशकों का उदात्त जीवन अन्यतम कवि के रूप में पूरी उदात्तता के साथ जीने की कोशिश की थी। अपने समय के दर्जनों कवियों में अपना एक अलग जीवन, अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल जनकवि के रूप में केदार जी की काव्य-साधना स्तुत्य है। उन्होंने अपनी निर्भीक वाणी से हृदय के उद्गार जितने भी प्रकट किए, वे सब चेतना की लहरें उमड़ने वाले अथाह सागर के रूप में नज़र आते हैं। केदार जी का काव्य-संसार - सागर जैसा विशाल, नदी की धारा जैसा निर्मल व तेज और चाँदनी-सी निश्छल आभा फैलाते हुए काव्य-प्रेमियों लिए थाती बन गया है।
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केदार जी की काव्य-यात्रा का आरंभ लगभग 1930 से माना जा सकता है। केदारनाथ अग्रवाल जी को प्रगतिशील कवियों की श्रेणी में बड़ी ख्याति मिली है। कविता के अलावा गद्य लेखन में भी उन्होंने रुचि दर्शायी थी, मगर काव्य-सर्जक के रूप में ही वे सुख्यात हैं। इनकी प्रकाशित ढ़ाई दर्जन कृतियों में 23 कविता संग्रह, एक अनूदित कविताओं का संकलन, तीन निबंध संग्रह, एक उपन्यास, एक यात्रावृत्तांत, एक साक्षात्कार संकलन और एक पत्र-संकलन भी शामिल हैं।

कृतियाँ

केदारनाथ अग्रवाल के प्रमुख कविता संग्रह हैं:-

युग की गंगा

फूल नहीं, रंग बोलते हैं

गुलमेंहदी

हे मेरी तुम!

बोलेबोल अबोल

जमुन जल तुम

कहें केदार खरी खरी

मार प्यार की थापें

केदारनाथ अग्रवाल अग्रवाल द्वारा यात्रा संस्मरण 'बस्ती खिले गुलाबों की'उपन्यास 'पतिया', 'बैल बाजी मार ले गये'तथा निबंध संग्रह 'समय समय पर' (1970), 'विचार बोध' (1980), 'विवेक विवेचन' (1980) भी लिखे गये हैं। उनकी कई कृतियाँ अंग्रेज़ी, रूसी और जर्मन भाषा में अनुवाद हो चुकी हैं। केदार शोधपीठ की ओर हर साल एक साहित्यकार को लेखनी के लिए 'केदार सम्मान'से सम्मानित किया जाता है।

प्रकाशित साहित्य

केदारनाथ अग्रवाल का प्रकाशित साहित्य

काव्य संकलन युग की गंगा (1947)

नींद के बादल (1947)

लोक और आलोक (1957)

फूल नहीं रंग बोलते हैं (1965)

आग का आइना (1970)

देश की कविताएं (1970)

गुल मेंहदी (1978)

आधुनिक कवि-16 (1978) 

पंख और पतवार (1979)

हे मेरी तुम (1981)

मार प्यार की थापें (1981)

बम्बई का रक्त स्नान (1981)

कहे केदार खरी खरी (1983)

अपूर्वा (1984)

जमुन जल तुम (1984)

बोले बोल अबोल (1985) 

जो शिलाएं तोड़ते हैं (1986)

आत्मगंध (1988)

अनहारी हरियाली (1990)

खुली आँखें खुले डैने (1993)

पुष्पदीप (1994)

वसंत में प्रसन्न हुई पृथ्वी (1996)

कुहक कोपल खड़े पेड़ की देह (1997)

केदारनाथ अग्रवाल की प्रगतिशीलता का मूर्त आधार है भारत की श्रमजीवी जनता मार्क्सवादी दर्शन ने जनता के प्रति उनकी ममता को प्रगाढ़ किया। जनता के संघर्ष में आस्था और उसके भविष्य में विश्वास उत्पन्न किया। इसीलिए वे अंग्रेज़ी या काँग्रेसी शासकों की आलोचना करते हुए जनता पर होने वाले पाशविक दमन और जनता के कठिन संघर्षों को सामने रखते हैं। इस कारण उनकी राजनीतिक कविताएँ जहाँ प्रचार के उद्देश्यों से लिखी गयी है वहाँ भी सिद्धांत अमूर्त या कथन मात्र होकर नहीं रह जाती। लेकिन सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जहाँ बहुत से प्रगतिशील लेखक दमन से डरकर या रामराज के लुभावने सपनों में बहकर काँग्रेसी 'नवनिर्माण'में हाथ बंटाने चले गए, वहाँ केदार उन लेखकों में थे जो इन सारी परिस्थितियों के प्रति जनता की ओर से, जनता को संबोधित करते हुए अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे। चूँकि केदार की दृढ़ आस्था मार्क्सवाद में और श्रमजीवी जनता में है, इसलिए वे घोषणा करते हैं: भजन का नहीं मैं भुजा का प्रतापी
उनकी यह आस्था तथाकथित नवनिर्माण वाले प्रभाव को टिकाऊ नहीं रहने देती। वे जनता पर आने वाले विपत्तियों से क्षुब्ध होकर व्यंग्य करते हैं:

राजधर्म है बड़े काम में छोटे काम भुलाना
बड़े लाभ की खातिर छोटी जनता को ठुकराना

उपरोक्त पंक्तियाँ सन् 1949 की है। सन् 1950 में वे पीड़ा के साथ दमन का चित्र खींचते हैं:

बूचड़ों के न्याय घर में

लोकशाही के करोड़ों राम सीता

मूक पशुओं की तरह बलिदान होते देखता हूँ

वीर तेलंगावनों पर मृत्यु के चाबुक चटकते देखता हूँ

क्रांति की कल्लोलिनी पर घात होते देखता हूँ।

परिमल प्रकाशन से संबंध

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने लिखने की शुरुआत की। उनकी लेखनी में प्रयाग की प्रेरणा का बड़ा योगदान रहा। प्रयाग के साहित्यिक परिवेश से उनके गहरे रिश्ते का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी सभी मुख्य कृतियाँ इलाहाबाद के परिमल प्रकाशन से ही प्रकाशित हुई। प्रकाशक शिवकुमार सहाय उन्हें पितातुल्य मानते थे और 'बाबूजी'कहते थे। लेखक और प्रकाशक में ऐसा गहरा संबंध देखने को नहीं मिलता। यही कारण रहा कि केदारनाथ ने दिल्ली के प्रकाशकों का प्रलोभन ठुकरा कर परिमल से ही अपनी कृतियाँ प्रकाशित करवाईं। उनका पहला कविता संग्रह 'फूल नहीं रंग बोलते हैं'परिमल से ही प्रकाशित हुआ था। जब तक शिवकुमार जीवित थे, वह प्रत्येक जयंती को उनके निवास स्थान पर गोष्ठी और सम्मान समारोह का आयोजन करते थे।

सम्मान एवं पुरस्कार

सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार

साहित्य अकादमी पुरस्कार

हिंदी संस्थान पुरस्कार

तुलसी पुरस्कार

मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार

साभार : भारत डिस्कवरी 



अयोध्यावासी कौशल वैश्य

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साभार :http://ayodhyavasi.in, अखिलभारतीय श्री अयोध्या वासी वैश्य सभा.






Origin of Gotra in Rajasthani & Gujrati Vaishya

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Origin of Gotra in Vaishya : 

 Acharya Sri Ratna Prabh Suri in the year Veer Sanvat 70 converted Raja Utpaldev of Upkeshpur Pattan (presently known as Osiya) and his entire kingdom into Jains. According to ‘Jain Jati Mahodaya’ Acharya Sriji named 18 Gotras as follow probably based on their original Gotra or business or status.

Tater
Bafna
Karnavat
Balaha
Morakh
Kulahat
Virhat
Shrishrimal
Shreshthi
Sancheti
Aditya
Nag
Bhuri
Bhadra
Chinchat
Kumat
Didu
Kannojia
Lagushreshti

All above were Mahajans in Osiya. In VS 222 a big Mahajan community gathered in Khandela near Jaipur. At that time all Mahajans of Osiya were named as Oswal and all above Gotra became part of Oswal.

According to Yati Rupchandji Jain Sampradaya Shiksh the total Gotras of Oswals were 440 and according to Yati Ramlalji “Mahajan Vansh Muktavali it was 609. According to myth one Bhat had made a list of 1444 Gotra but it is not available. We have published list of above 2700 gotras and origin of more than 800 gotra.

According to Sri Muni Gyan Sunderji 458 Gotras were made from 18 Gotras.

List of First 18 Gotras and Sub-Gotras

1. TATER:- 

Tater, ToNdiani, Chomola, Kosia, Dhavda, Chainavat, Talobda, Narvra, SAnghvi, Dungaria, Chaudhari, Ravat, Malavat, Surti, Jorvela, Panchayat, Vinayaka, SaDherao, Nagda, Paka, HArsot, Kelani (22 sub-gotras).

2.BAFNA:- 

Bafna (Bahufana), Nahata, Bhopala, Bhutia, Bhabhu, Navsara, Gugalia, Dagrecha, Chamakia, Chaudhari, Jangda, Kotecha, Bala, Dhaturia, Lihuvana, Kura, Betala, Salagna, Buchani, Savalia, Tosaria, Gandhi, Kothari, Khokhra, Patwa, Daftari, Godawat, Kucheria, Balia, SAnghvi, Sonawat, Selot, Bhavda, Lagu-Nahata, PanchavAYa, Humia, Tatia, Taga, Lagu-Chamakia, Bohara, Mithadia, Maru, Randhira, Brahmecha, Patalia, Banuda, Takalia, Godha, Garola, Dudhia, Badola, Suktia (52 sub-gotras).

3 KARNAVAT:- 

Karnavat, Bagadia, SAnghvi, Ransot, Aachha, Dadalia, Huna, Kakecha, ThaMbhora, Gundecha, Jijot, Labhani. Sankhla, Bhinmala (14 sub-gotras).

4 BALAHA:- 

Balaha, Ranka, Banka, Seth, Sethia, Chhavat, Chaudhari, Lala, Bohara, Bhuteda, Kothari, Raka, Depara, Nera, Sukhia, Patot, Pepsara, Dharia, Jadia, Salipura, Chitora, Haka, SAnghvi, Kagda, Kushlot, Falodia,(26 sub-gotras).

5. MORAKH:- 

Morakh, Pokarna, SAnghvi, Tejara, Lagu-Pokarna, Bandolia, ChuNga, Lagu-ChuNga, GaJa-Chaudhari, Goriwal, Kedara, Batokada, Karchu, KolOg, Shigala, Kothari (16 sub-gotras ).

6. KULAHAT:- 

Kulahat, Surva, Susani, Pukara, Masania, Khodia, SAnghvi, Lagu-Sukha, Borad, Chaudhari, Surania, Sakhecha, Katara, Hakada, Jalori, Manni, Palakhia, Khumana (18 sub-gotras).

7. VIRHAT:- 

Virhat, Bhurat, Tuhada, Oswala, Lagu-Bhurat, Gaga, Nopta, SAnghvi, nibolia, Hansa, Dharia, Rajsara, Motia, Chaudhari, Punamia, Sara, Ujot (17 sub-gotras).

8. SHRISHRIMAL:- 

Shrishrimal, srimal, SAnghvi, Lagu-Sanghvi, Niladia, Kotadia, Zabani, Naharlani, Kesaria, Soni, Khopar, Khajanchi, Danesra, Udhawat, Atkalia, Dhakadia, Bhinmala, Devad, Madalia, Koti, Chandalecha, Sanchora, Karva (23 sub-gotras).

9. 

SHRESHTHI:- Shreshthi, Singhavat, Bhalla, Rawat, Baid-Mutha, Patwa, Sevadia, Chaudhari, Thanavat, Chittora, Jagawat, Kothari, Bothani, Sanghvi, Popawat, Thakurot, Bakheta, Bijot, Devrajot, Gundia, Balota, Nagori, Sekhani, Lakhani, Bhura, Gandhi, Medatia, Randhira, Palawat, Shurma, (30 sub-gotras).

10. 

SANCHETI:- Sancheti, Suchinti, Dheladia, Dhamani, Motia, Bimba, Malot, Lalot, Chaudhari, Palani, Lagu-Sancheti, Mantri, Hukamia, Kajara, Hipa, Gandhi, Begania, Kothari, Malkha, Chhachha, Chittoria, Israni, Soni, Marua, Gharghanta, Udecha, Lagu-Chaudhari, Chosaria, Bapawat, Sanghvi, Murgipal, Kilola, Lalot, Khar-Bhandari, Bhojawat, Kati, Jata, Tejani, Sahajani, Sena, Mandirwala, Maltia, Bhopawat, Gunia, (44 sub-gotras).

11.AADITYANAG:- 

adityanag, Choradia, from choradia à Sodhani, SAnghvi, UDAK, Gasania, MInIyar , Kothari, Nabaria, Saraf, Kamani, Dudhoni, Sipani, Aasani, Sahlot, Lagu-sodhani, Dedani, Rampuria, Dhanani, Molani, Devsayani, Nani, Shravani, Bakad, Makkad, Bhakkad, Layunkad, Sansara, Kobera, Bhatarakia, Pitalia, Falodia, Bohara, Chaudhari, Parakh, from parakh à Bhavsara, Lagu-Parakh, Sanghvi, Dheladia, Jasani, Malhani, Trandak, Tajani, Rupawat, Chaudhari, Nagori, Patania, Chhadot, Mammaiya, Bohara, Khajanchi, Soni, Hadera, Daftari, Tolawat, Rao-Johari, Galani, Golechha, from go;echha à Daultani, Sangani, Sanghvi, Napada, Kajani, Hulla, Mehajawat, Nagada, Chitoda, Chaudhari, Datara, Minagra, Shravansukha (Shamsukha), from shravansukha à Minara, Lola, Bijani, Kesaria, Bala, Kothari, Nandecha, Bhatnera-Chaudhari, from bhatnera chaudhary à Kumpawat, Bhandari, Jimania, Chedavat, Sambharia, Kanuga, Gadhaiya, from gadhaiyaà Gehlot, Lunawat, Ranshobha, Balot, Singhvi, Nopta, Buchha, Sonara, Bhandalia, Karmot, Dalia, Ratanpura (98 sub-gotras).

12.

BHURI:- Bhuri, Bhatevra, Udak, Singhi, Chaudhari, Hirania, Machha, Bokadia, Balota, Bosudia, Pitalia, Sinhavat, Jalot, Dosakha, Ladva, Haldiya, Nachani, Murda, Kothari, Patolia, (20 sub-gotras).

13.BHADRA:- 

Bhadra (Bhardwaz), Samdaria, Hingad, Jogad, Ginga, Khapatia, Chavhera, Balada, Namani, Bhamrani, Dheladia, Sangi, Sadavat, Bhandavat, Chatur, Kothari, Lagu-Samdaria, Lagu-Hingad, Sandha, Chaudhari, Bhati, Surpuria, Patania, Nanecha, Gogad, Kuldhara, Ramani, Nathavat, Fulgara, (29 sub-gotras ).

14.CHINCHAT:- 

Chinchat, Desarda (Deshlahara), Sanghvi, Thakura, Goslani, Khinvasra, Lagu-Chinchat, Pachora, Purvia, Nasaniya, Naupola, Kothari, Tarawal, Ladsakha, Shah, Aaktara, Posalia, Pujara, Banavat, (19 sub-gotras).

15.KUMAT:- 

Kumat(Kumbhat), Kajalia, Dhanantari, Suga, Jagavat, Sanghvi, Pungalia, Kathoria, Kapurit, Samaria, Chaukha, Sonigara, Lahora, Lakhani, Makhani, Marvani, Morchia, Chhalia, Malot, Nagori, Lagu-Kumat, (21 sub-gotras).

16.DIDU:- 

Didu, Rajot, Soslani, Dhapa, Dhirat, Khandia, Yodhha, Bhatia, Bhandari, Samdaria, Sindhuda, Lalan, Kochar, Darva, Bhimavat, Palania, Sikharia, Banka, barbara, gadalia, kanunga (21 sub-gotra).

17.KANNOJIA:- 

Kannojia, Badbhata, Rakawal, Tolia, Chhachhalia, Ghevaria, Gunglecha, Karva, Gadwani, Karelia, Rada, Mitha, Bhopawat, Jalora, Jamgota, Patwa, Musalia, (17 sub-gotras).

18.LAGU-SHRESHTHI:- 

Lagu-Shreshthi, Vardhman, Bhomalia, Lunecha, Bohara, Patwa, Singhi, Chittora, Khajanchi, Punot, Godhara, Hada, Kuwalia, Lunna, Nateria, Gorecha, (16 sub-gotras).

In these 18 main gotras there are total 503 sub-gotras. 

CLASSIFICATION OF GOTRAS: 

Classification of Gotras are as per following logic:-

1. As per ORIGINAL CAST
2. As per ACHARYAS
3. As per GACHHA
4. As per FIRST Ancestor
5. As per PLACE
6. AS PER BUSINESS, PROFESSION JOB, SERVICE

1. AS PER ORIGINAL CASTS:-FROM KSHATRYAS:-

1. PANWAR:- Nahar, Bafna, Bardia, Darda, Nahata, Lalwani, Banthia, Barmecha, Kumkum-Chopra, etc.,

2. CHAUHANS:- Lodha, Kataria, Khimasra, Daga, Pithalia, Dugar, Babel, Bhandari, Sankhlecha, Kansatia, Mamaiya, Abeda, Khated, etc.,

3. Parmar:- Karania, Gang, Borad, Singhvi-Didu, etc.,

4. RATHORE:- Chordia, Golechha , Parakh, Chhajed, Zabak, Pokarna, Mohnot, etc.,

5. KHINCHI:- GALDA,6. GAHLOT:- PIPARA, etc

7. SONGARA CHAUHAN:- Doshi, Bagrecha, Subti, etc.,

8. BHATI:- Bhansali, Rakhecha, Pungalia, Aiyaria (Lunavat),

9. GAUD:- Ranka, Banka, etc

10. SIDHA:_Roonwal etc

11. SOLANKI:- Loonkad, Shripati, Dadha, Tilora, etc.,

12. DEORA:- Singhi, Singhvi,

13. DAIYA:- Salecha-Bohara, etc.

Some gotras are from Kshatryas but their original castes are not known. As Bothra, Kankaria, Mukim etc., From BRAHMINS:- Kathotia, Pagaria, Nanvana , Bhadra, Singhvi, Devananda sakhaFrom KAYASTH:- Gfundhar-ChopraFrom VAISHYA:- Pokarna, Bhabhu, Lunia, Rihod, Malu etc.,

2. As per ACHARYAS:-

Shri RATNAPRABH SURI:-First 18 Gotras and their sub-gotras.

Shri VARDHAMAN SURI:- Pipara, Kamani

Shri JINESHWAR SURI:- Shripati, Dhadha, Tilora, Chil-Bhansali, Bhansali

Shri JINCHANDRA SURI:- Shrimal,

Shri ABHEY DEO SURI:- Khetsi, Pagaria, Medatwal

Shri JINVALLABH SURI:-Kankaria, Chopra, Gandhar-Chopra, Kukad-Chopra, Vader, Sand, Singhi, Banthia, Lalwani, Barmecha, Shah, Solanki, Ghemawat, Otavat

Shri JINDUTT SURI:- Patwa, Tatia, Borad, Khimasra, Samdaria, Katotia, Kataria, Ratanpura, Lalwani, Daga, Malu, Bhabhu,Sethi, Sethia, Ranka, Dhoka, Rakhecha, Sanklecha, Pungalia, Choradia, Soni, Lunia, Nabaria, Pitalia, Bothra, Aiyaria, Lunawat, Bafna, Bhansali, Chandalia, Abeda, Khatol, Bhadgatya, Pokarna,

Shri MANIDHARI JINCHANDRA SURI:- Aagharia, Chhajed, Minni, Khajanchi, Mungadi, Shrimal, Salecha, Gang, Dugar, Shekhani,Alawat,

Shri JINKUSHAL SURI:- Babel, Jadia, Daga,

Shri JINCHANDRA SURI:- Pahalia, Pincha,

Shri JINHANSH SURI:- Galda,

Shri JINPRABH SURI:- Lagu-Khandelwal, DiduShri Jinbhadrasuri:- ZabakShri Tarunprabh Suri:- BhutariaShri Aryara Rakshat Suri:- Mahipal, Mithodia, Vader Shri Shanti Suri:- Gugalia, Gulundia

Shri KUSHAL SURI:- Daga,

Shri MANDEO SURI:- Nahar,

Shri UDHYOTAN SURI:- Baradia, Darda, Baldota-Singhvi,

Shri YASHOBHADRA SURI:- Bhandari, Shisodiya

Shri SHIVSEN SURI:- Mohnot,

Shri DHANESHWAR SURI:- Lunkad, Daddha, Tilora

Shri Dharmaghosh Suri:- Dadiyalecha, Devananda-sakha

Shri Namdeo Suri:- Nahar
Shri ChandraPrabh Suri:- Patavat
Shri Bhavdeo Suri:- Pamecha
Shri Kanak Suri:- Bolia
Shri Boppbhatt Suri:- Kosthagar
Shri Mahatma Posalia:- Kochar
Shri JaiSingh Suri:- Gala, Chhajol, Dedhiya, Nagda, Padiya, Peladia, Rathod, Lalan
Shri Ratnaprabh Suri:- Gudka
Shri Yashodeo Suri:- Vangni
Shri Vimal Chandra Suri:- Banda-Mehta
Shri RAVIPRABH SURI:- Lodha,
Shri DEOGUPTA SURI:- Lunawat,
Shri HEM SURI:- Surana,

3. As per GACHHA:-

UPKESH GACHHA:- First 18 gotras mentioned above

KHARTTAR GACHHA:- Kataria, Kankaria, Karnia,Kathotia, Khajanchi, Minni, Khimasra, Gadwani, Bhadgatia, Gelda, Gang, Gothi, Chopra,Gundhar, Kumkum, Choradia, Chhajed, Zabak, Daga, Doshi, Pithalia, Dugar,Dhadia, Tatia, Pagaria, Pokarna, Pipada, Babel, Borad, Bafna, Bothra, Mukim, Bhabhu, Bhansali, Malu, , Rakhecha,Pungalia, Lalwani, Banthia, Barmecha, Ranka, Runwal, Lodha, Lunia, Ayiaria, Lunawat, Kanstia, Mamiya, Salecha, Dhadha, Tilora , Singhi, Aabeda, Kamani, etc.,

SANDER GACHH:- Bhandari,TAPPA GACHHA:- Mohnot, Kochar etc.,KORANT GACHHA:- Sanklecha,Anchal Gachha:- Gala, Gudka, Chhajol, Dedhiya, Nagda, Mahipal, Mithodia

4. AS PER FIRST ANCESTOR :-Lalsingh -LuniaLuna -LunawatHarakhchand- HarkhawatDoongarsi -DoongraniMall -MallawatDasu- DassanniKheta -KhetaniAspal -AssaniMahaldeo -MaluBohith -BothraBachhaji -BachhawatDunga -DagaGonga -GangDudheda -DudheriaBrahmdeo -BrhmechaGada Shah -GadhaiyaLalsingh -LalwaniPilda -PithaliaBhardwaj -BhadraDaulatsingh -DaultaniRoopsingh -RoopaniTejsingh -TejaniMahaldeo -MahlaniJasa -Jasani etc.,

5. AS PER PLACEBhandsal - BhansaliKhivsar - KhinvsaraPipar - PipadaNagour - NagoriMedta - Medatwal/MedatiaPungal - PungaliaKankrot - KankariaSankhwal - SankhlechaRoon - RoonwalZabua - ZabakHala -HalakhandiJalor - JaloriKhatu - KhatolMandor - MandoraSirohi - SirohiaSanchor - SanchoraKuchera -KucheriaChitor -ChitoraFalodi - Falodia

6. AS PER BUSINESS, PROFESSION, JOB, SERVICE ETC.Tel (oil) -TiloraGhee -GhiyaGugal -GugaliaJewellery - JohariBohari - BoharaChaudhrahat- ChaudhariTreasurar - KhajanchiKothar -KothariHakumat - HakimBhandar - BhandariAccounts - MehtaShah, Seth, Sethia Vaidhya, Parakh, Singhvi.

उद्योगपति से संत श्री भंवर लाल दोषी

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साभार: नवभारत टाइम्स 

उच्च राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त अग्रवाल विभूति

जैन समुदाय, ज्ञान, दान है पहचान

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बात जैनों की हो और रईसी का जिक्र न आए, ऐसा कभी नहीं हो सकता है। हमेशा जेब से दमदार मानी जाने वाली यह कम्युनिटी दिल के मामले में भी काफी रईस है। हालांकि यही दौलत इन्हें दहेज जैसे मामलों में खींचकर नाम भी खराब करती है। पहले बिजनेस से जुड़े, लेकिन अब जॉब की तरफ भी रुख करनेवाले जैन समुदाय के मनोमिजाज पर रोशनी डाल रहे हैं 

देश की कुल आबादी करीब 125 करोड़ में से कुल 1 करोड़ जैन हैं, लेकिन इनकी अहमियत प्राचीन काल से बरकरार रही है। 'परस्परोग्रहों जीवानाम्'और 'जियो और जीने दो'जैसे नारों की वजह से इन्हें दुनिया भर में सम्मान की नजर से देखा जाता है। जैन दुनिया के सबसे पुराने स्वतंत्र धर्मों मे से है, जो वैदिक धर्म की शाखा नहीं है।

कॉमन अजेंडा

जैन सिर्फ आगे बढ़ने और किसी से न उलझने में विश्वास रखते हैं। उनका यह फंडा बिजनेस में साफ तौर पर नजर आता है। सादा जीवन और ऊंची सोच इस कम्युनिटी का पैरामीटर बन चुकी है। हालांकि मौज-मस्ती के लिए पैसा बहाना जैसी कमजोरियां भी हैं, लेकिन किसी की मदद करने में ये कभी पीछे नहीं रहते। यही वजह है कि जैन समाज बड़े-बड़े अस्पताल, कॉलेज, स्कूल, धर्मशाला आदि बनवाने के अलावा गरीब लड़कियों की शादी कराने में काफी आगे नजर आता है। कहा जाता है कि भारत में सबसे ज्यादा इनकम टैक्स भी जैन ही चुकाते हैं। यह कौम रूढ़िवादी नहीं, बल्कि प्रगतिशील हैं और स्त्री समानता की प्रबल समर्थक भी। 

शिक्षा पर जोर 

पढ़ाई-लिखाई के लिए जैन समाज में काफी जोर दिया जाता है, जिसके तहत महिलाओं को शिक्षा दिलाने में भी ये आगे नजर आते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में जैन महिलाओं का लिटरेसी रेश्यो करीब 96 पर्सेंट है। विकसित सोच की वजह से आज देश भर में जैन उच्च पदों पर काम कर रहे हैं। 

शाकाहार से फेमस 

पूरी दुनिया में शाकाहार का प्रचार करने के मामले में जैन अग्रणी हैं। सूरज छिपने से पहले ही खाना खा लेना और पानी भी छानकर पीना इनका ट्रेडमार्क है। हालांकि मॉडर्न लाइफस्टाइल में काफी जैन परिवार इस परंपरा को नहीं अपना पाते। अहिंसा विश्व भारती के संस्थापक आचार्य लोकेश मुनि बताते हैं कि जैनों की कोशिश से अब इंडियन रेलवे और एयरलाइंस में जैन फूड भी मिलने लगा है। इस तरह के भोजन में लहसुन, प्याज आदि का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। साथ ही, फूलगोभी व बैंगन जैसी सब्जियां भी नहीं होती हैं। इसके अलावा बारिश के 4 महीनों में कंद जैसे आलू, गाजर, अदरक आदि से परहेज किया जाता है। 

शो-ऑफ की आदत 

मर्सेडीज, ऑडी और जगुआर जैसी महंगी गाड़ियों में घूमने और महंगे रेस्तरां जाने को जैन अपना स्टेटस सिंबल मानते हैं। इसके अलावा ब्रैंडेड कपड़े पहनना और आशियाने को आलीशान बनाना इनके शो-ऑफ का तरीका है। जैन समाज, दिल्ली के अध्यक्ष और समाजसेवी चक्रेश जैन बताते हैं कि अपनी विकसित सोच के कारण जैन हमेशा आगे रहना ही पसंद करते हैं। 

दहेज बड़ी दिक्कत 

शादी-समारोह में पैसे को पानी की तरह बहाना और मोटे दहेज की मांग करना इस समुदाय की सबसे बड़ी दिक्कत रही है। हालांकि बदलते वक्त के साथ काफी बदलाव आया है और अब बेहतर लड़का या लड़की देखकर शादी होने लगी है। इसके बावजूद जैन कम्युनिटी में शादी में दहेज अब भीकाफी बड़ी कमजोरी है। कुछ लोग इस परंपरा को तोड़कर आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। इसके अलावा कई तरह के रीति-रिवाजों को लेकर मतभेद सामने आते हैं। जैसे जैन कम्युनिटी से जुड़े लोग जीव हिंसा से बचने के लिए पानी छानकर पीने व दिन छिपने से पहले भोजन करने में विश्वास रखते हैं। वहीं, रात के वक्त मंदिरों में पूजा करने के दौरान दीपक जलाए जाते हैं, जिससे जीव हिंसा होती है। इस तरह की बातों को लेकर अक्सर विरोध होता है। 
पैसे से मुसीबत भी 

ज्यादा पैसे वाला होने की गूंज से इस समुदाय को अक्सर नुकसान भी पहुंचा है। ऐसे में जैनों को अक्सर रंगदारी और किडनैपिंग जैसी वारदातों से भी जूझना पड़ता है। इस वजह से भी काफी लोग अपने नाम में जैन लिखने की जगह गोत्र का इस्तेमाल करते हैं। सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस आर. एम. लोढा, इंटरनैशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के जज दलबीर भंडारी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, एक्ट्रेस आशा पारेख, डायरेक्टर सूरज बड़जात्या आदि जैन हैं, लेकिन गोत्र लिखने के कारण लोगों को पहली नजर में इनके जैन होने का पता नहीं चलता है। 

ग्लोबल सिटिजन 

वैसे तो जैन पूरे भारत में हैं, लेकिन गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि में इनकी संख्या काफी ज्यादा है। वहीं, बिजनेस और जॉब के चक्कर में वे लगातार विदेशों में भी बस रहे हैं। लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में दर्शन विभाग के एचओडी प्रफेसर वीर सागर जैन के मुताबिक, बिजनेस के चलते साउथ अमेरिका और जॉब की वजह से नॉर्थ अमेरिका में काफी जैन रहते हैं। पुणे से बिलॉन्ग करने वाले रमेश जैन अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में कंप्यूटर साइंस एंड एजुकेशन के प्रफेसर रह चुके हैं। साथ ही, अब बतौर साइंटिस्ट काम कर रहे हैं। इसके अलावा अमेरिका में फैंटम के नाम से फेमस ह्यूमन मॉडल बनाने वाले अनिल जैन चर्चाओं में हैं। वहीं, शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय मूल के दीपक सी. जैन इस वक्त बैंकॉक की एक यूनिवर्सिटी में डीन हैं। वह लंदन की नॉर्थम्प्टन यूनिवर्सिटी से संबंधित केलॉग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के डीन भी रह चुके हैं। 

हर फील्ड में कमा रहे हैं नाम

मेरे हिसाब से जैन धर्म किसी भी मामले में किसी से पीछे नहीं है। इस कम्युनिटी से जुड़े लोग हर फील्ड में खूब नाम कमा रहे हैं, चाहे वह कला का क्षेत्र हो या राजनीति का। बिजनेस व पढ़ाई में जैन समाज पहले से ही अव्वल हैं, लेकिन अब जॉब करने में भी वह किसी से पीछे नहीं हैं। नए जमाने के हिसाब से भी उनका कोई तोड़ नहीं है। -रवींद्र जैन, संगीतकार 

नीरसता ने दूर किया नई पीढ़ी को जैन समुदाय के लोगों के पास माल बढ़िया है, लेकिन पैकिंग यानी प्रस्तुतिकरण काफी खराब है। जमाना प्रजेंटेशन का है, जिससे किसी भी चीज के बारे में लोगों को पता चलता है। अहिंसा, अपरिग्रह व अनेकांत आदि इसी धर्म के सिद्धांत हैं, जिन्हें लोग अब भी मानते हैं। लेकिन अध्यात्म व सिद्धांत को इतना नीरस बना दिया गया कि नई पीढ़ी जैन धर्म से दूर होती चली गई।

-तरुण सागर, जैन मुनि

साभार: नवभारत टाइम्स 

शिव प्रसाद गुप्त - स्वतंत्रता सेनानी

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बाबू शिव प्रसाद गुप्ता (28 जून 1883 – 24 अप्रैल 1944) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, परोपकारी, राष्ट्रवादी कार्यकर्ता तथा महान द्रष्टा थे। उन्होने काशी विद्यापीठ की स्थापना की। शिव प्रसाद ने 'आज'नाम से एक राष्ट्रवादी दैनिक पत्र निकाला। उन्होंने बनारस मे 'भारत माता मन्दिर'का भी निर्माण करवाया।

जीवनी 

बाबू शिव प्रसाद गुप्ता बनारस के एक समृद्ध वैश्य परिवार में जून, 1883 में पैदा हुए थे। उन्होंने संस्कृत, फारसी और हिंदी का अध्ययन घर पर ही किया था। उन्होंने इलाहाबाद से स्नात्तक की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे पण्डित मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी, आचार्य नरेन्द्र देव तथा डॉ॰ भगवान दास से अत्यन्त प्रभावित थे। 

यद्यपि उनका जन्म एक धनी उद्योगप्ति एवं जमीनदार परिवार में हुआ था, किन्तु उन्होने अपना सारा जीवन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए चल रहे विभिन्न आन्दोलनों में भाग लेने तथा उनकी आर्थिक सहायता करने में लगा दिया। बाबू शिव प्रसाद गुप्ता ने क्रांतिकारियों का सहयोग दिया था वे अपनी राष्ट्रवादी गतिविधियों के कारण अनेक बार जेल गये। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए के बीच में अपनी पढ़ाई छोड़ दिया था जो उनकी शिक्षा, पूरा करने के लिए उन युवाओं को एक मौका देने के लिए अब एक विश्वविद्यालय है, जो वाराणसी में काशी विद्यापीठ की स्थापना की. उन्होंने कहा कि भारत की राहत का नक्शा संगमरमर पर नक्काशीदार किया गया है, जिसमें भारत माता मंदिर का निर्माण किया। मंदिर 1936 में महात्मा गांधी द्वारा उद्घाटन किया गया . एक राज्य विश्वविद्यालय, "भारत माता मंदिर "एक राष्ट्रीय विरासत स्मारक, "शिव प्रसाद गुप्ता अस्पताल" - - वाराणसी, हिन्दी दैनिक आज के सिविल अस्पताल - सबसे पुराना मौजूदा हिंदी अखबार और कई वाराणसी में उन्होंने काशी विद्यापीठ की स्थापना अन्य परियोजनाओं और सार्वजनिक महत्व की गतिविधियों . अकबरपुर में, वह सेटिंग्स को देश में ही खादी के कपड़े के विनिर्माण के उत्पादन और बिक्री को बढ़ावा देने के लिए भारत में पहली बार गांधी आश्रम के लिए भूमि की 150 एकड़ (0.61 km2) दे दी है आज हिन्दी दैनिक समाचार पत्र, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सुविधा के क्रम में वर्ष 1920 में राष्ट्र रत्न बाबू शिव प्रसाद गुप्ता द्वारा शुरू Jnanamandal लिमिटेड का मील का पत्थर प्रकाशन . बाबू शिव प्रसाद गुप्ता कई वर्षों के लिए अपनी कोषाध्यक्ष के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़े थे। उन्होंने कहा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए के बीच में अपनी पढ़ाई छोड़ दिया था जो उनकी शिक्षा, पूरा करने के लिए उन युवाओं को एक मौका देने के लिए अब एक विश्वविद्यालय है, जो वाराणसी में काशी Vidhyapith की स्थापना की. उन्होंने कहा कि भारत की राहत का नक्शा संगमरमर पर नक्काशीदार किया गया है, जिसमें भारत माता मंदिर का निर्माण किया। मंदिर 1936 में महात्मा गांधी द्वारा उद्घाटन किया गया . 

वर्ष 1928 में वाराणसी में आयोजित होने वाली पहली राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए कुल व्यय और व्यवस्था अपने निवास 'सेवा Upawan ', अपने मित्र श्री Catley के लिए सर एडविन लुटियन द्वारा डिजाइन एक विरासत भवन, पर राष्ट्र रत्न श्री शिव प्रसाद गुप्ता द्वारा किया गया था वाराणसी के कलेक्टर और वर्ष 1910 में राष्ट्र रत्न जी ने खरीदा . यह लोग यहां की पेशकश की थी अमीर आतिथ्य का पर्याय था, जो महात्मा गांधी ने 'सेवा Upawan 'नाम दिया गया था। इमारत appertained भूमि की 20 एकड़ (81,000 M2) द्वारा कवर पवित्र गगा riverGanges के पश्चिमी तट पर स्थित 75,000 वर्ग फुट (7000 मीटर 2) का एक निर्माण क्षेत्र के साथ में मौजूद हैं। राष्ट्र रत्न जेईई रुपये का दान दिया. 1,01,000 / - 20 वीं सदी की शुरुआत में, 50 लाख के एक भव्य कुल विभिन्न रियासतों और औद्योगिक घरानों से मालवीय जी की शह और नेतृत्व में एकत्र किया गया था जिसके लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए पहली बार दान के रूप में . राष्ट्र रत्न जी सक्रिय रूप में भाग लिया इस महान और समाज की applifment और उस पर आराम में ब्रिटिश शासन, महात्मा गांधी के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 'राष्ट्र रत्न - राष्ट्र का गहना 'के शीर्षक की ओर से इन अमूल्य योगदान के लिए भारतीय डाक विभाग उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया.

साभार: विकिपीडिया

श्रेष्ठी पाड़ाशाह और पारस पत्थर

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श्रेष्ठी पाड़ाशाह और पारस पत्थर

पाड़ाशाह नाम के धर्मात्मा श्रेष्ठी (व्यापारी) गृहपति गहोई जाति के वैश्य रत्न थे जो चेंदी जनपद (वर्तमान चंदेरी ) के थुबौन ग्राम (वर्तमान अतिशय क्षेत्र थुबौन जी ) के रहने वाले कहे जाते थे । बचपन से ही पाड़ाशाह को जैन धर्म में सच्ची आस्था थी । वह स्वभाव से सरल होकर सत्य, अहिंसा एवं रतनात्रय धर्म के पक्के श्रद्धालु भक्त थे । बचपन से ही उन्हें जैन धर्म के ज्ञान की देवोपुनीत प्रतिभा की देन थी । पुण्य कर्मो के प्रभाव से उन्हें धनी होने का सौभाग्य प्राप्त था। बाल्यावस्था से ही इस पुण्य जीव के भाव जगह जगह जिन मंदिर बनवाना, प्रतिष्ठा करना तथा धर्म की प्रभावना करते रहने का था ।
पाड़ाशाह अधिकतर पाड़ो की पीठ पर सामान क्रय विक्रय का व्यापार किया करते थे। वह एक कुशल व्यापारी थे । संभवतः इसीलिए इनका नाम पाड़ाशाह पड़ा हो, पूर्व नाम कुछ और हो।
paras
एक दिन जब वह अपने पाड़ो सहित ग्राम बजरंगढ़ की ओर जा रहे थे की रास्ते में पठार पर उनके पाड़ो में से एक पाड़ा गुम हो गया। वह चिन्तित हुवे अपने गुमशुदा पाड़े की खोज करने लगे। परेशान होकर जब वह निराश होकर लौट रहे थे तो उन्हें गुमशुदा पाड़ा दिखा और उसके गले की लोहे की जंजीर सोने (स्वर्ण) की हो गयी थी, वही उन्हें खोज करने पर पारस पत्थर मिला। पारस पत्थर पाकर उनकी धर्म प्रभावना प्रबल हो उठी। उन्हें उसी रात्रि को ऐसा सपना आया कि वो इस पारस पत्थर द्वारा इसी ग्राम में जिनालय का निर्माण कराये और ऐसा ही हुआ पाड़ाशाह ने मुख्य मंदिर का निर्माण कराया और तभी से इस पठार के रास्ते का नाम पाड़ा-खोह के नाम से प्रसिद्ध हो गया। उन्होंने मंदिर और मूर्तियाँ निर्मित कराकर उन्हें प्रतिष्ठित कराने का संकल्प किया और सर्वप्रथम उन्होंने बजरंगढ़ में ही पाड़ा-खोह नामक स्थान से 2 किलोमीटर दूर दक्षिण में भगवान शांतिनाथ के भव्य जिनालय का निर्माण कराया और उसमे इन तीनों तीर्थंकरों की विशाल प्रतिमायें फाल्गुन सुदी 6 विक्रम सम्वत 1236 को प्रतिष्ठित करायी । यह क्षेत्र पाड़ाशाह की उदारता, धर्मनिष्ठा एवं जैन संस्कृति का ज्वलंत प्रमाण है ।
पाड़ाशाह ने अपने जीवन काल में इस क्षेत्र के अलावा भी कई विशाल मंदिरों का निर्माण कराया जिनमे मनोज्ञ मनभावन मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई है जैसे थूबौन जी, चंदेरी, आहार जी, पपोरा जी, झालरापाटन, चाँदखेड़ी, बानपुर, सोनागिर का एक मंदिर, भियादांत बेरसिया, वर्री, मामोन (भाभोंन), सतना, सुम्मे के पहाड़, परचाई चौरासी, गोलाकोट, सेरोन जी खलारा, बल्हारपुर, सुखाया, शेषई, राई, पनवाडा, आमेट, दूवकुण्ड, आरा (अगरा), में भी जिनालयों का निर्माण कराया ।
प्रायः उन्होंने शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ तीर्थंकर की प्रतिमाये प्रतिष्ठित करायी। उनमे सर्वत्र मूलनायक भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा को ही रखा। कहीं कहीं तो उन्होंने शांतिनाथ भगवान की प्रतिमा ही प्रतिष्ठित करायी। इससे ऐसा लगता है कि धर्म वात्सल्य पाड़ाशाह की यधपि सभी तीर्थंकरो के प्रति अगाथ श्रद्धा थी, किन्तु शांतिनाथ भगवान के प्रति उनका विशेष आकर्षण था । संभवतः शांतिनाथ भगवान के दर्शन, पूजन और नाम स्मरण से उन्हें अपेक्षाकृत अधिक शांति प्राप्त होती थी।
पाड़ाशाह द्वारा निर्मित एक माणिक रत्न की 17 इंच की पद्मप्रभु की पदमासन प्रतिमा बूढी चंदेरी के जंगल में बहने वाली नदी के किनारे एक विशाल जैन मंदिर “बीठ्ली” में आज भी मौजूद है ।

पूर्वकालीन इतिहास

किसी भी क्षेत्र के इतिहास पर जब नज़र डाली जाती है तो हमें क्षेत्र के निर्माण व अतिशय की जानकारी सहर्ष उपलब्ध हो जाती है परन्तु बजरंगढ़ का इतिहास पढने से पूर्व हमें यहाँ की राजनैतिक, सामाजिक व भौगोलीक सीमाओं का भी एक वृहत इतिहास जान पढता है। जो इस पावन अतिशय क्षेत्र की समृद्धशाली गौरव गाथा है।
इस नगर ने इतिहास के अनेक उत्थान-पतन और राजनैतिक अनेक उथल-पुथल देखी है । इतिहास में इस नगर के कई नाम प्राप्त होते है – जैसे मूसागढ़, झरखोन, सारखोन, बजरंगढ़, जयनगर, जैनागढ़। इन नामों का अपना-अपना एक इतिहास भी है।
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कहा जाता है लगभग संवत 1200 के पूर्व से ही यहाँ अलग अलग समुदायों का शासन रहा है इसका पूर्व नाम “मूसागढ़ ” हुआ करता था जहाँ नन्दवंशीय अहीरों के वंशज बेरगढ़ियों का राज था। किला उस समय छोटी बस्ती के रूप में था तथा तलहटी में लगभग 100 जैन परिवारों की बस्ती हुआ करती थी जो आसपास के क्षेत्रो में व्यापर संलग्न थी। कालांतर में बेरगढ़ियों व झिरवार रघुवंशियों के बीच शासन सत्ता को लेकर युद्ध हुआ तथा झिरवार रघुवंशियों को सत्ता हासिल हो गई और इस नगर का नामकरण“झरखोन ” रखा गया और फिर बदलते बदलते “सारखोन” हो गया ।
“झरखोन” के दक्षिण पश्चिम में राघौगढ़ में खीची राजपूत चौहानों का शासन था। उन दिनों महाराजा धीरजसिंह जी गद्दी आसीन थे उस समय इनका शासन खिलचीपुर, चाचौड़ा, भदोरा, राघौगढ़ आदि में विधमान था। यह समस्त क्षेत्र “खीचीबाड़ा” कहलाता था।
महाराजा धीरज सिंह को अपने राज्य की सीमाएं विस्तारित करने का शौक था वह छोटी छोटी जागीरो को अपने में मिला लेना चाहते थे इसी उद्देश्य से उन्होंने बजरंगगढ़ पर आक्रमण कर दिया और किले पर अपनी विजय प्राप्त कर ली अब “झरखोन ”महाराजा राघौगढ़ के अधीन आ गया था ।
गढ़ी (किले) में विजयोल्लास मनाया जा रहा था । महाराजा धीरजसिंह जी इसमें सम्मलित होने के लिए सदर दरवाजे से गढ़ी (किले) की ओर बढ़ रहे थे की अचानक एक बेरगढ़िये ने महाराज पर आक्रमण कर उनकी हत्या कर दी। महाराज की मृत्यु के पश्चात् खीजी चौहान अपना आधिपत्य न रख सके और बेरगढ़ियों ने पूरे “झरखोंन” पर अपना शासन स्थापित कर लिया।
महाराजा धीरजसिंह की हत्या की घटना 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में घटित हुई थी किन्तु इसी शताब्दी के उत्तरार्ध में सम्वत 1833 में धीरजसिंह के प्रपोत्र बलवंत सिंह ने “झरखोंन” पर आक्रमण करके बेरगढ़ियो को मार भगाया और इस प्रकार अपने प्रपितामह की हत्या का प्रतिशोध लिया। उसने “झरखोंन” का नाम परिवर्तन करके “बजरंगढ़” कर दिया जो आजतक इसी नाम से पहचाना जाता है। उसने नवीन किला बनवाया।

बजरंगढ़ और जैनागढ़

सम्वत 1855 में राजा बलवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात राजा जयसिंह “बजरंगढ़” की गद्दी पर आसीन हुए।
राजा जयसिंह ने किले को व किले का निचला भाग की बसाहट कार्य तेजगति से प्रारंभ किया। तब किले के निचले भाग जयनगर कहते थे ।
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उस समय लगभग 200 जैन परिवार यहाँ निवास करते थे और यह सम्वत 1200 से ही व्यवसाय का बड़ा केंद्र रहा। राज्य में जैन समाज का बड़ा सम्मान और प्रभाव था। जब इन सभी बातों का जिक्र महाराजा जयसिंह के दरबार में हुआ तो उन्होंने अगहन वदी 13 बुधवार सम्वत 1855 को “जैनागढ़” नाम घोषित कर दिया। सम्वत 1855 से सम्वत 1872 तक महाराजा जयसिंह ने “बजरंगढ़ और जैनागढ़” पर अपना शासन प्रशासन किया।

महाराजा जयसिंह के सुशासन का अंत

सम्वत 1872 चेत्र वदी 1 बुधवार को बजरंगढ़ में ढिंढोरा हुआ। सिन्धे अलीजाह के फ़्रांसिसी सेनापति सर जॉन वेप्तिस ने रात्रि के मध्य में किले पर चढाई की, घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ, राजा जयसिंह ने अपने आपको वीरगति में जाने के पूर्व खीची वंश की मर्यादा को चिरस्मरणीय बनाये रखने के लिए अपनी रानीयों के सतीत्व को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें रनवास के पिछले भाग में जिन्दा चुनवा दिया और वीरों की तरह दुश्मन से बदला लेने को जान बचाकर स्वयं वहां से निकल गए जो केवल यादगार बन उस खीची वंश के यशश्वी वीर की याद दिला रहा है ।
मयाचंद नाज़र जो महाराजा जयसिंह का विरोधी था, सर जॉन बत्तीस से मिल गया व “बजरंगढ़ और जैनागढ़” पर ग्वालियर स्टेट के नियम शर्तों के अनुसार चेत्र वदी 2 गुरूवार सम्वत 1872 को गादी पूजन कर, काबिज हो गया।
सम्वत 1876 से बजरंगढ़ श्रीमंत महाराजा अलीजाह बहादुर श्री दौलत रामजी शिन्धे ने अपने नियमानुसार इसे जिले का दर्जा घोषित कर दिया और यहाँ का प्रशासन ग्वालियर स्टेट के अंतर्गत चालू कर दिया । बाद में सम्वत 1895 में राय बहादुर लक्ष्मण सिंह को जिला मजिस्ट्रेट बनाये गए। ग्वालियर शासन काल में यहाँ कई देव स्थान, शासकीय कार्यालय, भवन आदि का निर्माण कराया गया। 1895 के समय गुना एक छोटा सा गावं हुआ करता था । स्वतंत्रता के पश्चात देसी रियासतों के भारत में विलय होने पर बजरंगढ़ मध्यप्रदेश के गुना जिले के अंतर्गत आ गया ।

राजा टोडरमल पोरवाल - RAJA TODARMAL

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टोडरमल का जन्म चैत्र सुदी नवमी बुधवार संवत् 1658 वि. (सन् 1601, मार्च 18) को बूँदी के एक पोरवाल वैश्य परिवार मे हुआ था। बाल्यकाल से वह हष्टपुष्ट, गौरवर्ण युक्त बालक अत्यन्त प्रतिभाशाली प्रतीत होता था। धर्म के प्रती उसका अनुराग प्रारंभ से ही था। मस्तक पर वह वैष्णव तिलक लगया करता था।

युवावस्था में टोडरमल ने अपने पिता के लेन-देन के कार्य एवं व्यवसाय में सहयोग देते हुए अपने बुद्धि चातुर्य एवं व्यावसायिक कुशलता का परिचय दिया । प्रतिभा सम्पन्न पुत्र को पिता ने बूँदी राज्य की सेवा में लगा दिया । अपनी योग्यता और परिश्रम से थोड़े ही दिनों में टोडरमल ने बूँदी राज्य के एक ईमानदार , परिश्रमी और कुशल कर्मचारी के रुप में तरक्की करते हुए अच्छा यश अर्जित कर लिया।

उस समय मुगल सम्राट जहाँगीर शासन कर रहा था। टोडरमल की योग्यता और प्रतिभा को देखकर मुगल शासन के अधिकारियों ने उसे पटवारी के पद पर नियुक्त कर दिया। थोड़े ही काल में टोडरमल की बुद्धिमत्ता , कार्यकुशलता, पराक्रम और ईमानदारी की प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई और वह तेजी से उन्नति करने लगा।

सम्राट जहाँगीर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र शाहजहाँ मुगल साम्राज्य का स्वामी बना। 1639 ई. में शाहजहाँ ने टोडरमल के श्रेष्ठ गुणों और उसकी स्वामी भक्ति से प्रभावित होकर उसे राय की उपाधि प्रदान की तथा सरकार सरहिंद की दीवानी, अमीरी और फौजदारी के कार्य पर उसे नियुक्त कर दिया। टोडरमल ने सरहिंद में अपनी प्रशासनिक कुशलता का अच्छा परिचय दिया जिसके कारण अगले ही वर्ष उसे लखी जंगल की फौजदारी भी प्रदान कर दी गई । अपने शासन के पन्द्रहवें वर्ष में शाहजहाँ ने राय टोडरमल पोरवाल को पुन: पुरस्कृत किया तथा खिलअत, घोड़ा और हाथी सहर्ष प्रदान किये । 16 वें वर्ष में राय टोडरमल एक हजारी का मनसबदार बन गया। मनसब के अनुरुप से जागीर भी प्राप्त हुई। 19वें वर्ष में उसके मनसब में पाँच सदी 200 सवारों की वृद्धि कर दी गई । 20वें वर्ष में उसके मनसब में पुन: वृद्धि हुई तथा उसे ताल्लुका सरकार दिपालपुर परगना जालन्धर और सुल्तानपुर का क्षेत्र मनसब की जागीर में प्राप्त हुए । उसने अपने मनसब के जागीरी क्षेत्र का अच्छा प्रबन्ध किया जिससे राजस्व प्राप्ति में काफी अभिवृद्धि हो गई ।

राय टोडरमल निरन्तर उन्नति करते हुए बादशाह शाहजहाँ का योग्य अधिकारी तथा अतिविश्वस्त मनसबदार बन चुका था । 21वें वर्ष में उसे राजा की उपाधि और 2 हजारी 2हजार सवार दो अस्पा, तीन अस्पा की मनसब में वृद्धि प्रदान की गई । राजा की पदवी और उच्च मनसब प्राप्त होने से राजा टोडरमल पोरवाल अब मुगल सेवा में प्रथम श्रेणी का अधिकारी बन गया था। 23वें वर्ष में राजा टोडरमल को डंका प्राप्त हुआ।

सन् 1655 में राजा टोडरमल गया। जहाँ उसका एक परममित्र बालसखा धन्नाशाह पोरवाल रहता था। धन्नाशाह एक प्रतिष्ठित व्यापारी था। आतिथ्य सेवा में वह सदैव अग्रणी रहता था। बूँदी पधारने वाले राजा एवं मुगल साम्राज्य के उच्च अधिकारी उसका आतिथ्य अवश्य ग्रहण करते थे। बूँदी नरेश धन्नाशाह की हवेली पधारते थे इससे उसके मानसम्मान में काफी वृद्धि हो चुकी थी। उसकी रत्ना नामक एक अत्यन्त रुपवती, गुणसम्पन्न सुशील कन्या थी। यही उसकी इकलौती संतान थी। विवाह योग्य हो जाने से धन्नाशाह ने अपने समान ही एक धनाढ्य पोरवाल श्रेष्ठि के पुत्र से उसकी सगाई कर दी।

भाग्य ने पलटा खाया और सगाई के थोड़े ही दिन पश्चात् धन्नाशाह की अकाल मृत्यु हो गई । दुर्भाग्य से धन्नाशाह की मृत्यु के बाद लक्ष्मी उसके घर से रुठ गई जिससे एक सुसम्पन्न, धनाढ्य प्रतिष्ठित परिवार विपन्नावस्था को प्राप्त हो गया। धन्नाशाह की विधवा के लिए यह अत्यन्त दु:खमय था। गरीबी की स्थिति और युवा पुत्री के विवाह की चिन्ता उसे रात दिन सताया करती थी । ऐसे ही समय अपने पति के बालसखा राजा टोडरमल पोरवाल के बूँदी आगमन का समाचार पाकर उसे प्रसन्नता का अनुभव हुआ।

एक व्यक्ति के साथ धन्नाशाह की विधवा ने एक थाली मे पानी का कलश रखकर राजा टोडरमल के स्वागत हेतू भिजवाया। अपने धनाढ्य मित्र की ओर से इस प्रकार के स्वागत से वह आश्चर्यचकित रह गया। पूछताछ करने पर टोडरमल को अपने मित्र धन्नाशाह की मृत्यु उसके परिवार के दुर्भाग्य और विपन्नता की बात ज्ञात हुई, इससे उसे अत्यन्त दु:ख हुआ । वह धन्नाशाह की हवेली गया और मित्र की विधवा से मिला। धन्नाशाह की विधवा ने अपनी करुण गाथा और पुत्री रत्ना के विवाह की चिन्ता से राजा टोडरमल को अवगत कराया।

अपने परममित्र सम्मानित धनाढ्य श्रेष्ठि धन्नाशाह की विधवा से सारी बातें सुनकर उसे अत्यन्त दु:ख हुआ। उसने उसी समय धन्नाशाह की पुत्री रत्ना का विवाह काफी धूमधाम से करने का निश्चय व्यक्त किया तथा तत्काल समुचित प्रबन्ध कर रत्ना के ससुराल शादी की तैयारी करने की सूचना भिजवा दी। मुगल साम्राज्य के उच्च सम्मानित मनसबदार राजा टोडरमल द्वारा अपने मित्र धन्नाशाह की पुत्री का विवाह करने की सूचना पाकर रत्ना के ससुराल वाले अत्यन्त प्रसन्न हुए ।

राजा टोडरमल ने एक माह पूर्व शान शौकत के साथ गणपतिपूजन करवा कर (चाक बंधवाकर) रत्ना के विवाहोत्सव का शुभारंभ कर दिया। निश्चित तिथि को रत्ना का विवाह शाही ठाटबाट से सम्पन्न हुआ। इस घटना से राजा टोडरमल की उदारता, सहृदयता और मित्रस्नेह की सारी पोरवाल जाति में प्रशंसा की गई और उसकी कीर्ति इतनी फैली की पोरवाल समाज की स्त्रियाँ आज भी उनकी प्रशंसा के गीत गाती है और पोरवाल समाज का एक वर्ग उन्हें अपना प्रातः स्मरणीय पूर्वज मानकर मांगलिक अवसरों पर सम्मान सहित उनका स्मरण करता है तथा उन्हें पूजता है। इस प्रकार राजा टोडरमल का यश अजर-अमर हो गया। हाड़ौती (कोटा-बूँदी क्षेत्र) तथा मालवा क्षेत्र में जहाँ भी पोरवाल वास करते है, वहाँ टोडरमल की कीर्ति के गीत गाये जाते हैं तथा उनका आदरसहित स्मरण किया जाता है। उनके प्रति श्रद्धा इतनी अधिक रही है कि पोरवाल व्यापारी की रोकड़ न मिलने पर टोडरमल का नाम लिखा पर्चा रोकड़ में रख देने से प्रातःकाल रोकड़ मिल जाने की मान्यता प्रचलित हो गई है।

सम्राट शाहजहाँ का उत्तराधिकारी दाराशिकोह वेदान्त दर्शन से अत्यन्त प्रभावित उदार विचारों का व्यक्ति था। सन् 1658 से बादशाह शाहजहाँ के गम्भीर रुप से अस्वस्थ हो जाने की अफवाह सुनकर उसके बेटे मुराद और शुजा ने विद्रोह कर दिया। 16 अप्रैल 1658 ई. शुक्रवार को धरमाट (फतियाबाद) के मैदान में औरंगज़ेब की सेनाओं ने शाही सेना को करारी शिकस्त दी। सामूगढ़ के मैदान में पुनः दाराशिकोह के नेतृत्व में शाही सेना को औरंगज़ेब और मुराद की संयुक्त सेना से पराजय का सामना करना पड़ा। दारा युद्ध में पराजित होकर भागा। औरंगज़ेब ने आगरा पर अधिकार कर पिता को किले में कैद किया और फिर आगे बढ़ा। रास्ते में मुराद को समाप्त कर औरंगज़ेब ने पंजाब की ओर भागे दाराशिकोह का पीछा किया।

राजा टोडरमल की प्रारम्भ से ही दाराशिकोह के प्रति सहानुभूति थी। पराजित दारा के प्रति उसकी सहानुभूति में कोई अन्तर नहीं आया। अतः जब दारा लखी जंगल से गुजरा तो राजा टोडरमल ने जो लखी जंगल का फौजदार था, अपने कई मौजें में गड़े धन से 20 लाख रुपये गुप्त रुप से सहायतार्थ प्रदान किये थे।

इसी कारण पंजाब की ओर दारा का पीछा करने के बाद लाहौर से दिल्ली की तरफ लौटते हुए औरंगज़ेब ने अनेक सरदारों और मनसबदारों को खिलअते प्रदान की थी। तब लखी जंगल के फौजदार राजा टोडरमल को भी खिलअत प्राप्त हुई थी।

इटावा का फौजदार रहते हुए राजा टोडरमल ने अपनी पोरवाल जाति को उस क्षेत्र में बसाने तथा उन्हें व्यापार- व्यवसाय की अभिवृद्धि के लिये समुचित सुविधाएँ प्रदान करने में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया था। सम्भवतः इस कारण भी जांगड़ा पोरवाल समाज में इसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के उद्देश्य से एक श्रद्धेय पूर्वज के रुप में राजा टोडरमल की पूजा की जाती है ।

राजा टोडरमल अपने अंतिम समय में अपने जन्मस्थल बूँदी में अपना शेष जीवन परोपकार और ईश्वर पूजन में व्यतीत करने लगे तथा समाज के सैकड़ों परिवार इटावा क्षेत्र त्यागकर बून्दी कोटा क्षेत्र में आ बसे। यहीं से ये परिवार बाद में धीरे-धीरे मालवा क्षेत्र में चले आए।

राजा टोडरमल की मृत्यु कहाँ और किस तिथि को हुई थी इस सम्बन्ध में निश्चित कुछ भी ज्ञात नहीं है । किन्तु अनुमान होता है कि सन् 1666 ई. में पोरवाल समाज के इस परोपकारी प्रातः स्मरणीय महापुरूष की मृत्यु बूँदी में ही हुई होगी । कोटा बूँदी क्षेत्र में आज भी न केवल पोरवाल समाज अपितु अन्य समाजों मे भी राजा टोडरमलजी के गीत बड़ी श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं।

साभार : jangda porwal samaj history http://jangdaporwalsamaj.org/

जांगडा पोरवाल समाज - JANGDA PORWAL SAMAJ

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गौरी शंकर हीराचंद ओझा (इण्डियन एक्टीक्वेरी, जिल्द 40 पृष्ठ क्र.28) के अनुसार आज से लगभग 1000 वर्ष पूर्व बीकानेर तथा जोधपुरा राज्य (प्राग्वाट प्रदेश) के उत्तरी भाग जिसमें नागौर आदि परगने हैं, जांगल प्रदेश कहलाता था।

जांगल प्रदेश में पोरवालों का बहुत अधिक वर्चस्व था। समय-समय पर उन्होंने अपने शौर्य गुण के आधार पर जंग में भाग लेकर अपनी वीरता का प्रदर्शन किया था और मरते दम तक भी युद्ध भूमि में डटे रहते थे। अपने इसी गुण के कारण ये जांगडा पोरवाल (जंग में डटे रहने वाले पोरवाल) कहलाये। नौवीं और दसवीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर हुए विदेशी आक्रमणों से, अकाल, अनावृष्टि और प्लेग जैसी महामारियों के फैलने के कारण अपने बचाव के लिये एवं आजीविका हेतू जांगल प्रदेश से पलायन करना प्रारंभ कर दिया। अनेक पोरवाल अयोध्या और दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गये। दिल्ली में रहनेवाले पोरवाल “पुरवाल”कहलाये जबकि अयोध्या के आस-पास रहने वाले “पुरवार”कहलाये। इसी प्रकार सैकड़ों परिवार वर्तमान मध्यप्रदेश के दक्षिण-प्रश्चिम क्षेत्र (मालवांचल) में आकर बस गये। यहां ये पोरवाल व्यवसाय /व्यापार और कृषि के आधार पर अलग-अलग समूहों में रहने लगे। इन समूह विशेष को एक समूह नाम (गौत्र) दिया जाने लगा। और ये जांगल प्रदेश से आने वाले जांगडा पोरवाल कहलाये। वर्तमान में इनकी कुल जनसंख्या 3 लाख 46 हजार (लगभग) है।

पुरातन वैज्ञानिक ब्रह्मगुप्त - BRAHAMGUPT

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साभार: भारतीय वैज्ञानिक-K.M.L. SHRIVASTAVA

IRA SINGHAL - इरा सिंघल "IAS TOPPER"

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मैं हूं इरा सिंघल। मैंने आईएएस टॉप किया है। आज लोग मुझे जानते हैं, लेकिन एक समय मुझे अपनी पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ा। मैंने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। बचपन में ही मेरी रीढ़ की हड्डी सिकुड़ने लगी। मेडिकल में इसे रेअरेस्ट माना जाता है। डॉक्टर्स ने इसे स्कोलियोसिस बताया। मुझे उस उम्र में इस बीमारी का पता भी नहीं था। पर मेरी ज़िंदगी में संघर्ष यहीं से शुरू हो गया। ऑपरेशन कराने में जान का खतरा था, तो माता-पिता ने जाेखिम नहीं लिया। मेरी ज़िंदगी अपनी राह पर थी, तो यह स्थिति भी साथ थी।

स्कूल में एडमिशन का समय आया, तो बहुत मुश्किलें आईं। मुझे यह तक कहा गया कि मैं नाक में बोलती हूं। बड़ी मिन्नतों के बाद अलग से टेस्ट लिया। पांचवीं तक मैं हमेशा फर्स्ट आई, क्योंकि मां पढ़ाई पर ध्यान देती थी। बाद में पापा को बिज़नेस में घाटा होने पर ऐसे हालात हो गए कि मेरी पढ़ाई भी प्रभावित होने लगी। पापा ने 1993 में एक बिज़नेस शुरू किया, जिसमें बड़ा नुकसान हुआ। 1997 तक तो आर्थिक हालात बेहद खराब हो गए। हम किराए के घर में रहे। पैसों की इतनी कमी थी कि घर में एक टेबल फैन खरीदने के भी पैसे नहीं थे। बाद में मकान मालिक ने हमें पंखा दिया।

इरा कहती हैं, ‘अब दुनिया मेरे जैसों को अलग तरीके से देखने लगेगी।’ मेरी हमेशा से इच्छा कुछ अलग करने की ही रही है। 1995 में दिल्ली आने से पूर्व हमारा परिवार मेरठ में रहता था। जहां मैंने सोफिला गर्ल्स स्कूल से पहली से छठी तक की पढ़ाई की। वहां से दिल्ली आने के बाद दिल्ली के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल से 10वीं पास की फिर धौला कुआं स्थित आर्मी पब्लिक स्कूल से अपनी 12वीं की पढ़ाई पूरी की। वर्ष 2006 में एनएसआईटी द्वारका से पढ़ाई की। वर्ष 2006 से 2008 तक डीयू के एफएमएस से फाइनेंस और मार्केटिंग में एमबीए किया। फिर कैडबरी इंडिया में कस्टमर डेवलपमेंट मैनेजर की पोस्ट पर दो साल तक काम किया।

बचपन में मुझे डॉक्टर बनने का शौक था। पढ़ाई में भी अच्छी थी, लेकिन पापा ने समझाया कि पढ़ाई तो कर लोगी लेकिन खड़े होकर घंटो सर्जरी कैसे करोगी। मन मारकर मैंने डीयू के नेताजी सुभाष इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया। यहां बीटेक कंप्यूटर साइंस में दाखिला मिला। परीक्षा होने से कुछ दिन पहले पढ़ाई करती थी। अच्छे नंबरों से पास हुई। कॉलेज के दिनों में मैंने थियेटर ग्रुप भी ज्वाइन किया, क्योंकि शारीरिक दिक्कतों ने कभी मेरा हौसला नहीं तोड़ा। मन में हमेशा यह कोशिश रहती की दूसरों के समकक्ष आने के लिए मुझे थोड़ी ज्यादा कोशिश करनी है। यही ज्यादा कोशिश मुझे यहां तक ले आई। मैंने भूगोल को मुख्य विषय के रूप में चुना, मन लगाकर पढ़ाई की। वर्ष 2010 के पहले ही प्रयास में सफलता मिली। मेरा मन विदेश सेवा में जाने का था, लेकिन मेडिकल शर्तों की वजह से मुझे पोस्टिंग नहीं दी गई। लगातार तीन बार सिविल सेवा की परीक्षा मैंने उत्तीर्ण की। परीक्षा पास करने के बाद भी पोस्टिंग न मिलना यकीनन कठिन रहा। मैंने हार नहीं मानी। अपने हक के लिए कोर्ट गई, इसमें पापा ने बहुत फाइट लड़ी। हर कदम पर वे मेरे साथ रहे।

2011 में मैंने परीक्षा पास कर ली थी, लेकिन इसके जश्न पर तब पानी फिर गया, जब सरकार ने मुझे नियुक्ति देने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं, मेरी उम्मीदवारी ही खत्म कर दी गई, क्योंकि उनका मानना था कि मैं इस काम के लिए शारीरिक रूप से अक्षम हूं। एक कारण यह दिया गया कि 62 फीसदी विकलांगता ने मेरी दोनों बाहों को प्रभावित किया है, जिसके कारण मैं किसी चीज़ को न खींच सकती हूं, न धकेल सकती हूं और न उठा सकती हूं। बड़ी अजीब बात थी कि सरकार को लगता था कि भारतीय राजस्व सेवा के दायित्व को निभाने के लिए इन शारीरिक क्षमताओं की जरूरत है। मैंने सोच लिया कि मैं यह मूर्खतापूर्ण नियम अपने पर लागू नहीं होने दूंगी। अपनी लड़ाई मैं केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण तक लाई।

वहां 18 महीने तक संघर्ष चला और मेरे पक्ष में फैसला आया। बेंच के सदस्यों ने भी इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि क्या वाकई किसी आईआरएस ऑफिसर को किसी रेड के दौरान ऐसे भारी पैकेट उठाने की जरूरत पड़ती है। मेरी मेडिकल जांच में मैंने उन्हें बता दिया कि 10 किलो तक का वजन तो मैं उठा सकती हूं। जिस दिन मैंने यूपीएससी की परीक्षा पास की, केंद्रीय कार्मिक प्रशासन विभाग से फोन आया कि मंत्री महोदय मुझसे मिलना चाहते हैं। मजे की बात यह है कि ये वही विभाग है, जिसने मुझे आईआरएस की परीक्षा पास करने के बाद ठुकरा दिया था। वर्ष 2014 में आईआरएस सेवा में ज्वाइनिंग मिली, इस दौरान एक दोस्त से मुलाकात हुई, जिसने कहा कि मैं चौथी बार आईएएस के लिए परीक्षा दूं। मैंने उसकी सलाह मानी और दो महीने तक उसके साथ ग्रुप डिस्कशन और पढ़ाई की। जिससे न केवल मेरा चयन हुआ, बल्कि मैं परीक्षा में टॉप कर सकी।

मेरी शारीरिक सीमाएं कभी मुझे अपने सपनों को साकार करने में बाधा नहीं लगी। सच तो यह है कि जब हम अपनी सीमाएं और मर्यादाएं तोड़ते हैं, तो ही सीमित दायरे से बाहर आते हैं और कामयाबी के लायक बनते हैं। हर संघर्ष आपको कुछ न कुछ सीखाता है। संघर्ष में हार की संभावना तो रहती है, लेकिन जीवन में आपको लड़ते चले जाना पड़ता है। किसी न किसी तरह का संघर्ष हर व्यक्ति को करना पड़ता है और इससे बचना तो मेरे ख्याल से जिंदगी को ठुकराने जैसा ही है।

मेरे माता-पिता फाइनेंशियल एवं इंशुरेन्स कंसलटेन्सी के व्यवसाय में हैं। उन्होंने कभी मुझे विकलांग मानकर मेरे साथ व्यवहार नहीं किया। बचपन से ही उन्होंने मुझे यह सिखाया है कि परिस्थितियों को एक शारीरिक रूप से सामान्य व्यक्ति की तरह कैसे देखना चाहिए। मेरा संघर्ष इसलिए नहीं था कि मैं शारीरिक रूप से अक्षम थी, बल्कि संघर्ष इसलिए था कि मैं महिला हूं। जैसे हर महिला को भेदभाव और एक पिछड़ी सोच का सामना करना पड़ता है, वैसा ही मुझे भी करना पड़ा। आईएएस अफसर की भूमिका में भी मैं महिला, बच्चों और शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के लिए काम करना चाहूंगी। यह सफलता पाकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैं हर किसी से यह कहना चाहती हूं कि अपनी बेटी को पढ़ने और काम करने दीजिए। उन्हें दुनिया में जाने दीजिए और अपनी ज़िंदगी खुद बनाने का मौका दीजिए।

साभार: दैनिक भास्कर

जींद के विपुल गर्ग ने किया ऑल इंडिया प्री मेडिकल में किया टॉप

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जींद शहर के एक हौनहार विपुल गर्ग ने केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की एआइपीएमटी की परीक्षा में देश भर में प्रथम स्थान प्राप्त कर न केवल जींद शहर बल्कि अपने प्रदेश का नाम भी ऊचां किया है उसने 12 वीं परीक्षा में 90 फीसदी अंक हासिल किए थे। जैसे ही यह समाचार मिला तो विपुल गर्ग के यहां बधाई देने वालों की कतार लगनी आरंभ हो गई और सभी इस हौनहार छात्र की तारिफ कर रहे थे विपुल के पिता पेशे से व्यवशायी हैं परिवार के लोग भी उसकी इस उपलब्धि पर खुशी से फुले नही समा रहें है विपुल ने बताया कि वह मेहनत और लग्र से कार्य करेगा और आगे भी अपने शहर व प्रदेश का नाम ऐसे ही ऊचां करने का प्रयास करेगा। अपनी सफलता पर विपुल ने कहा कि परीक्षा के बाद मैं खुश था कि मेरे पेपर अच्छे हो गए थे लेकिन टॉप करने के बारे में कभी नहीं सोचा था। उसने कहा कि मुझे अब बहुत खुशी है कि मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज नई दिल्ली में एडमिशन मिल सकेगा। यह एक स्वप्न था मेरे और मेरे परिवार के लिए जो सच हो गया। विपुल ने बताया कि 3 मई को हुई परीक्षा में उसके पेपर अच्छे रहे थे ले किन सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था। इसके बाद उसे तैयारी का एक और मौका मिल गया। रिटेस्टे होने से और अच्छा परफार्म कर सका।सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ;सीबीएसई की ओर से गत 25 जुलाई को देशभर में पुन: ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट की परीक्षा हुई थी। इसके लिए कुल 6लाख 32हजार 625 उम्मीदवार पंजीकृत हुए थे जिसमें 4लाख22हजार859 उम्मीदवारों ने परीक्षा देने के लिए प्रवेश पत्र डाउनलोड किया। देश विदेश के कुल 50 शहरों के कुल 1065 सेंटरों पर यह परीक्षा हुई। सीबीएसई ने परीक्षा के सफल संचालन के लिए कड़े सुरक्षा इंतजाम किए थे। दिल्ली में करीब 80 परीक्षा सेंटरों पर परीक्षार्थियों ने ये प्रवेश परीक्षा दी थी
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